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Friday, December 27, 2019

वस्तुतः शब्द आईना ही होते हैं ....डॉ. नवीन दवे मनावत

शब्द अगर
आईना होता
तो पहचानता
वह परछाई
जिसे घसीटा जाता है
लंबे रेगिस्तानी
रास्तों पर
प्राप्त करने को
वह खोह
जिसमे समा सके
आदमी की
तलाश और...
चाह की मंजिल.

शब्द अगर आईना
बनकर घूमता
उस जगह जहां
छिपाया जाता है
सूरज को!
दबाई जाती है चांद
की रोशनी को
तब वहां केवल
जुगनुओं की रोशनी में
मंत्रणाएं होती है
तब उस समय
शब्द बताता..
यथार्थ की कविता।

शब्द आईना बनकर
देखना चाहता है
कैसी बनावट होगी
आदमी की?
उसके अन्तर्रोदन की
पीड़ा और संवेदना
कैसी होगी?
और ....
एकांतित क्षण के
विचार
कैसे पनपते होंगे?

वस्तुतः
शब्द आईना ही होते हैं
जो बताते हैं
आदमी की औकात
कि वह कितना
गिरता है..
या गिरे हुए को
उठाता है।
जिसकी तस्वीर
खींचता रहता है
हरदम शब्द रूपी
आईना..
-डॉ. नवीन दवे मनावत

Wednesday, February 4, 2015

वसंत ऋतु अति मन भावन............गोविन्द भारद्वाज


 कुछ वासंती हाईकू


कोयल कूके
वन-उपवन में
मन के बीच

धरा ने ओढ़ी
वसंती चुनरिया
फूलों से जड़ी

वसंत ऋतु
अति मन भावन
घर-आंगन


नए कोंपल
पुरानी डालपर
नए कपड़े

प्रेम की पाती
लगती वसंत में
जीवन धरा

धरती झूमें
पहन पीली साड़ी
जैसे दुल्हन

मन-आंगन
खिल गई कलियां
भंवरे डोले

तितली रानी
आई है वसंत में
फूल खिलाने

जड़ बंजर
सबकी गोद भरी
इस ऋतु में

मीठी ठण्ड में
आई ओढ़ रजाई
बसंती हवा

महक उठा
सांसों का उपवन
छूकर उसे

नाचे मयूरा
मन उपवन में
पंख पसार


-गोविन्द भारद्वाज


..............पत्रिका से
 

Saturday, December 6, 2014

मील का पत्थर........ दिनेश विजयवर्गीय










कदमों की प्रगति की पहचान है
मील का पत्थर
वह अलसाए कदमों में
जान डालकर
उन्हें कर देता है गतिमय
जल्द मंजिल की ओर
बढ़ने के लिये।

वह केवल पत्थर नहीं
हमारी यात्रा का प्रगति सूचक है
आगे बढ़ते रहने के लिए
प्रोत्साहन भी देता है वह।

जेठ की तपती धूप हो या
पौष की कड़कती ठण्ड या हो
सावन-भादो की वर्षा
वह हर मौसम झेलकर भी
सड़क के किनारे खड़ा रहकर
हमें जोड़े रखता है।
अपनी यात्रा की प्रगति से।

वह करता नहीं कभी
कोई शिकायत
अपने बदरंग करते
वाहनों की
छोड़ी गई कालिख का
उड़ाई गई धूल और
चिंघाड़ती आवाजों का
वह तो सदा एक ही मुद्रा में
चुप-चुप सहता है
अपने भाग्य में आई
प्रतिकूलताओं को।

अपने गुणों के खातिर ही
उसे देश-दुनिया में मिली है
सम्मान से भरी पहचान
मील का पत्थर साबित होने की
वाह...! मील के पत्थर,
तुम्हें जन-जन का सलाम।

-दिनेश विजयवर्गीय
.....पत्रिका से

Saturday, November 29, 2014

अबला नहीं ये है सबला.........जयश्री कुदाल





यूं तो आई तूफान-सी बाधाएं
आई सुनामी-सी मुश्किलें

तोड़ने को मेरे सपनों का घरौंदा

पर मैं न हारी न टूटी

न मैं किस्मत से रूठी


न मैं रोई न बेबस हुई

न छोड़ी मैंनें लेका-सच्चाई

अब बस आगे बढ़ना है

न हारना है न रुकना है

क्यूंकि जब मैंनें हिम्मत करी
मेरे सपनों ने उड़ान भरी..

-जयश्री कुदाल..

.............पत्रिका से



इस कविता को पढ़कर ऐसा लगा कि ये नई कलम है
आपकी राय इनको प्रोत्साहित करेगी.....सादर





Friday, November 7, 2014

नजर आता नहीं इंसान बाबा...........चाँद शेरी



नहीं तू इस कदर धनवान बाबा
खरीदे जो मेरा ईमान बाबा

न तू बन इस कदर शैतान बाबा
कि हो सब बस्तियां वीरान बाबा

ये छोड़ अब मंदिर-मस्ज़िद के झगड़े
अरे छेड़ एकता की शान बाबा

न बांट इनको ज़बानों-मज़हबों में
सभी भारत की है संतान बाबा

गरीबों को मिले दो वक़्त की रोटी
कोई तो इतना रखे ध्यान बाबा

मुखौटे ही मुखौटे हर तरफ हैं
नजर आता नहीं इंसान बाबा

नई कुछ बात कह शेरों में 'शेरी'
गजल को दे नया उनवान बाबा

-चाँद शेरी

... पत्रिका से

Tuesday, October 21, 2014

अक्स तुम्हारा............राजेन्द्र जोशी





 










मैं उस रात
तम्हारे इन्तजार में
घर की छत पर
आधे चाँद को देखता रहा
तुम्हारी तलाश में
देखता रहा
उस आधे में भी
पूरा अक्स तुम्हारा..


-राजेन्द्र जोशी


.... हेल्थ, पत्रिका से





Friday, October 17, 2014

अंदाज......................राजेन्द्र जोशी



















किया था एक समझौता
तुम्हारे साथ
नजदीक रहने भर का
तुम्हीं से
लेकिन तुम ते
समेट ले गई मुझे ही
आहिस्ता से
हंसती हुई बाहों में
अकेली,
अलहदा अंदाज में
मेरा गहरी सोच के बिना
मेरे रक्त के समंदर में
तैरने लगी
मेरी हर इच्छा
पूरी करती हुई
मछली की तरह।


-राजेन्द्र जोशी
.... हेल्थ, पत्रिका से




Tuesday, October 7, 2014

खनकता फिर भी रहेगा..............मृदुल पंडित











आदमी और सिक्के में
कोई अन्तर नहीं
एक पैसे का हो
या रुपए भर का
सिक्के के मानिन्द झुकता है
दुआ-सलाम के लिए
और गिर जाता है
औंधे मुंह.
सिक्का ही होता है
हथियार उसके लिए
कभी हेड, कभी टेल
दोनों में वह तलाश लेता है
अपना स्वार्थ.
सिक्के की तरह
चाल-चलन में रमते हुए
आदमी हो जाता है
खुद खोटा सिक्का
वह उलटा गिरे या सीधा
खनकता फिर भी रहेगा

-मृदुल पंडित
... पत्रिका से

Tuesday, September 30, 2014

कुएं की तलाश में.............ललिता परमार



 













पूछ रहा था पता
भटक रहा था
मेंढक कुएं की
तलाश में
यहां से वहां
नदी, तालाबों में
सुरक्षित नहीं था
वह कुआं जो आज
किंवदंती वन
गुम हो गया
दे दी अपनी
जगह नलकूपों को
कुआं जहां पहले
राहगीरों की प्यास
के लिये राह में
खड़े रहते थे,
इन्तजार में
किसी प्यासे के लिये
आज उसी कुएं की
तलाश में भटक रहा है
मेंढ़क
बड़े फख्र से कहलाने के
लिए
कुएं का मेंढ़क

-ललिता परमार
....पत्रिका से

Tuesday, September 9, 2014

क्यूं हाथ लगी रुसवाई है..........देव वंश दुबे

 

  
कांटों में जो थोड़ी महक समाई है
फूलों ने ही दरियादिली दिखाई है

हो जाता गुलज़ार फलक पूरे दिल का
हंसती जब कोई कभी रोशनाई है

दुनिया से तो प्यार जताया है लेकिन
ना जाने क्यूं हाथ लगी रुसवाई है

सपनों को साकार बनाऊं फिर कैसे
राहों में पर्वत या फिर खाई है

न करता आंखों से चूमूं दरिया को
करता जो प्यासों की ही अगुआई है

-देव वंश दुबे
...........हेल्थ, पत्रिका से