उतर कर आसमां की
सुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
रोती गीली गीली शाम
कुछ बूँदें छितराकर
तुलसी के चौबारे पर
साँझ दिये के बाती में
जल गयी भीनी भीनी शाम
थककर लौट रहे खगों के
परों पे सिमट गयी
खोयी सी मुरझायी शाम
उदास दरख्तों के बाहों में
पत्तों के दामन में लिपटी
सो गयी चुप कुम्हलाई शाम
संग हवा के दस्तक देती
सहलाकर सिहराती जाती
उनको छूकर आयी है
फिर से आज बौराई शाम
देख के तन्हा मन की खिड़की
दबे पाँव आकर बैठी है
लगता है आज न जायेगी
यादों में पगलाई शाम
सुन्दर रचना।
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर पंक्तिया....मनमोहक सी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर श्वेता जी
ReplyDeleteसादर
बहुत ही सुंदर.....
ReplyDeleteलाजवाब।
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31.01.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3233 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 31 जनवरी 2019 को प्रकाशनार्थ 1294 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
कवि मन और कौन एहसास मे बौराया भीगा थका हारा मन। आशा को समेटे पगलाया मन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर रचना वाह्ह्ह ¡¡¡
बेहद सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteहर तरह की शाम का खूबसूरत चित्र मनमस्तिष्क पर बनता गया पंक्तिबद्ध होकर...
ReplyDeleteबहुत लाजवाब...
वाह!!!
फिर से आज बौराई शाम
ReplyDeleteदेख के तन्हा मन की खिड़की
दबे पाँव आकर बैठी है
लाजवाब,हर एक तन्हा शाम की बेचैनी को जुबा दे दी हैं आपने,शायद अगर शामों की जुबान होती तो ये ही बयान होते।
बेहतरीन।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन प्रथम परमवीर चक्र से सम्मानित वीर को नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteलाजबाब ...,स्नेह सखी
ReplyDeletenice
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