रोज ही चल पड़ती है
थामकर मेरा हाथ,
बड़ी चालाकी से ये ज़िंदगी
दिखाती है सुनहरे ख़्वाब.
थमे न थे पैर कभी
रुके न मन की आस
लालसाओं के भंवरजाल में
कराती नहीं आभास.
यूं ही छोड़ देगी किसी दिन
अनजाने एक मोड़ पर
करके कुछ बेचैन मुझे
छोड़कर कुछ सवाल.
सौंप देगी नया एक पिंजर
चल देगी फिर अपनी राह
सदियों की इस लंबी यात्रा पर
कहां थमेगी किस जगह पर.
- अनीता वाधवानी