Wednesday, June 28, 2023

ऐसा क्या है जो भारत से अच्छा पाकिस्तान में है ?


Thursday, December 8, 2022

इंद्रधनुष ... डॉ. सीमा भट्टाचार्य

पौष की वह
धुआं भोर
मखमली चादरी
शीत दोपहरी सा..

घुमड़ता बादल वह
सांझ सिंदूरी
बरसता बूंद
धूप लहरी सा

धनकता पहाड़ वह
हरीतिमा हरी
महकता द्रुत
फूल पापड़ी सा

पर्वत गोद वह
इंद्रधनुष संतरी
श्रृग बहता
अमृत सीकरी सा

धरा हिम वह
मेघ जड़ी
तारा दीप
जलता अंगार सा

सूर्य चंद्र वह
क्षितिज प्रहरी
श्वेत आकाशगंगा
आरव लड़ी सा...

- डॉ. सीमा भट्टाचार्य

Saturday, October 22, 2022

इन आँखों ने देखी न राह कहीं ...महादेवी वर्मा

 


इन आँखों ने देखी न राह कहीं
इन्हें धो गया नेह का नीर नहीं,
करती मिट जाने की साध कभी,
इन प्राणों को मूक अधीर नहीं,
अलि छोड़ो न जीवन की तरणी,
उस सागर में जहाँ तीर नहीं!
कभी देखा नहीं वह देश जहाँ,
प्रिय से कम मादक पीर नहीं!

जिसको मरुभूमि समुद्र हुआ
उस मेघव्रती की प्रतीति नहीं,
जो हुआ जल दीपकमय उससे
कभी पूछी निबाह की रीति नहीं,
मतवाले चकोर ने सीखी कभी;
उस प्रेम के राज्य की नीति नहीं,
तू अकिंचन भिक्षुक है मधु का,
अलि तृप्ति कहाँ जब प्रीति नहीं!

पथ में नित स्वर्णपराग बिछा,
तुझे देख जो फूली समाती नहीं,
पलकों से दलों में घुला मकरंद,
पिलाती कभी अनखाती नहीं,
किरणों में गुँथी मुक्तावलियाँ,
पहनाती रही सकुचाती नहीं,
अब फूल गुलाब में पंकज की,
अलि कैसे तुझे सुधि आती नहीं!

करते करुणा-घन छाँह वहाँ,
झुलसाता निदाध-सा दाह नहीं
मिलती शुचि आँसुओं की सरिता,
मृगवारि का सिंधु अथाह नहीं,
हँसता अनुराग का इंदु सदा,
छलना की कुहू का निबाह नहीं,
फिरता अलि भूल कहाँ भटका,
यह प्रेम के देश की राह नहीं!

-महादेवी वर्मा

Tuesday, October 18, 2022

ना जाने क्यूं ...दिनेश पाठक

मेरे घर की खिड़की से
अब कोई पेड़ नहीं दिखता
न जाने क्यूं
सुरक्षित अभ्यारण्य में भी
अब कोई शेर नहीं दिखता

कहानियां मार्मिक यूं तो
बिखरी है चारो ओर
न जाने क्यूं
लोगों की आँखों में
अब पानी नहीं दिखता

स्नेह और वात्सल्य यूं तो
लुटाया जा रहा है बहुत
न जाने क्यूं
सर जी अंकल जी पर,
अब गुड़िया का
भरोसा नहीं दिखता

सफेद खादी पहने दिखाई देते हैं
नेता तो बहुत
न जाने क्यूं
अब कोई गांधी-नेहरू,सुभाष
नहीं दिखता

सफर हवाई जहाजों के
कर रहे हैं,
माँ-बाप बहुत
न जाने क्यूं
राह में अब कोई
श्रवण कुमार नहीं दिखता
-दिनेश पाठक
(रसरंग से)

Monday, October 17, 2022

आजमाईश.....दीप्ति शर्मा

आजमाना न था साथी
जीवन की आजमाइश में 
जिंदगी को तौलता तराजू
सूरज बना,

तुम कंधे पर बैठ उसके
थामनें लगे दुनिया
पकड़ने लगे पीलापन
मुट्ठी बंद करते ही अंधेरा हो गया

पीलापन छूटा तो
आजमाया तुमनें
रिश्तों की गहराइयों को
अंधेरा हुआ तो
कंधा छूट गया
परछाई का साथ मिला
अब क्या
सूरज के कंधे की सवारी 
चश्में के लेंस में दिख रही

तुम आजमाते रहे
जिंदगी नाचती रही
उजाला,अंधेरा हुआ
आँखों का चश्मा

जिंदगी की रौशनी ले
डूब गया अंततः ।
-दीप्ति शर्मा
मूल रचना

Sunday, October 16, 2022

कितने सहमे डरे हुए ..प्रकाश गुप्ता

कितने सहमे डरे हुए 
अहं से हम भरे हुए
इच्छाओं के पत्ते हरे हुए
फिर भी हैं ठहरे हुए
क्योंकि अहं से हैं भरे हुए

आत्म-प्रशंसा की दीवारें
दिखता नहीं "मैं" के पार कुछ भी
मैं के बंघनों में जकड़े हुए
खुद तक सहमें,सिकुड़े हुए

बस अब कुछ और दिखाई न दे
सिर्फ अपनी आवाज सुनाई दे
टर्राते हुए मेंढकों के कुंए गहरे हुए
घमंड में चूर अंधे-बहरे हुए

सिमट गए सारे दायरे
लेकिन अपना गुरूर हाय रे
कैसे छुपाएं कितने सहमें डरे हुए
शायद अंदर से एकदम मरे हुए

हर तरफ ऊंचाइयां ही ऊंचाइया
कामयाबी की लम्बी-लम्बी
परछाइयां
परछाइयों में गुम कई चेहरे हुए
मगर हसरतों पर न
सख़्त पहरे हुए

अहं से हम भरे हुए
इच्छाओं के पत्ते हरे हुए
फिर भी हैं ठहरे हुए
क्योंकि अहं से हैं भरे हुए

Friday, October 14, 2022

नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है ...मैथिलीशरण गुप्त



नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥

नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं॥

परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥

हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?

पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?

तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥

निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥

षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥

शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥

सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥

औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥

जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥


क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥

विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥

हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥

लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥

उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥
-मैथिलीशरण गुप्त