Friday, May 31, 2013

सिसकते आब में किस की सदा है......... डॉ. बशीर बद्र

सिसकते आब में किस की सदा है  
कोई दरिया की तह में रो रहा है

सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा  
ख़ुदा चारो तरफ़ बिखरा हुआ है

समेटो और सीने में छुपा लो  
ये सन्नाटा बहुत फैला हुआ है

पके गेंहू की ख़ुश्बू चीखती है  
बदन अपना सुनेहरा हो चला है

हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती है  
समन्दर कैसा बूढ़ा देवता है

हमारी शाख़ का नौ-ख़ेज़ पत्ता  
हवा के होंठ अक्सर चूमता है

मुझे उन नीली आँखों ने बताया  
तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है

-डॉ. बशीर बद्र

Thursday, May 30, 2013

औरतों के जिस्म पर सब मर्द बने हैं......रवि कुमार



औरतों के जिस्म पर सब मर्द बने हैं
मर्दों की जहाँ बात हो, नामर्द खड़े हैं

शेरों से खेलने को पैदा हुए थे जो वो
किसी के नाज़ुक़ बदन से खेल रहे हैं

हर वक़्त भूखी आँखें कुछ खोज रही हैं
भूखे बेजान जिस्म को भी नोंच रहे हैं

गुल पे ही नहीं आफ़त गुलशन पे भी है
झड़ते हुए फूलों पे, वे कलियों पे पड़े हैं

मरने की नहीं हिम्मत ना जीने का सलीक़ा
हम सूरत – ए - इंसान ये बेशर्म बड़े हैं

--रवि कुमार

कोई काँटा चुभा नहीं होता.................बशीर बद्र

 
कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता

जी बहुत चाहता सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता 
  ---डॉ.बशीर बद्र

Wednesday, May 29, 2013

तपती गरमी जेठ मास में....................ज्योति खरे


अनजाने ही मिले अचानक
एक दोपहरी जेठ मास में
खड़े रहे हम बरगद नीचे
तपती गरमी जेठ मास में-----
               
               
प्यास प्यार की लगी हुई
होंठ मांगते पीना
सरकी चुनरी ने पोंछा
बहता हुआ पसीना
रूप सांवला हवा छू रही
बेला महकी जेठ मास में-----

बोली अनबोली आंखें
पता मांगती घर का
लिखा धूप में उंगली से
ह्रदय देर तक धड़का
कोलतार की सड़क ढूँढ़ती
भटकी पिघली जेठ मास में-----

स्मृतियों के उजले वादे
सुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते
आशाओं के बाग़ खिले जब
बूंद टपकती जेठ मास में------

"ज्योति खरे"  
http://jyoti-khare.blogspot.in/2013/05/blog-post_27.html

अच्छा पाठक बनना भी एक कला..............अफ्रीकी लेखक बेन ओकरी की राय

'अच्छा लेखक बनने की पहली शर्त है अच्छा पाठक बनना। लेखन की कला के साथ ही पढ़ने की कला भी विकसित की जानी चाहिए ताकि हम और बुद्धिमत्ता व संपूर्णता के साथ लिखे हुए को ग्रहण कर सकें। मेरे लिए लिखना व पढ़ना दोनों निर्युक्तिदायक प्रक्रियाएं हैं।' ये उद्गार थे अफ्रीकी लेखक बेन ओकरी के।
अंग्रेजी में लिखने वाले बेन ओकरी दुनियाभर के पाठकों के बीच अपनी जगह बना चुके हैं। उनकी रचनाओं का दुनिया की बीस भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। 'द फेमिश्ड रोड' के रचनाकार को अपने बीच पाकर श्रोता मंत्रमुग्ध थे।
खचाखचभरे पांडाल में भी सुई तोड़ सन्नाटे में बैठकर लोगों ने ओकरी की बातों को और उनके रचना पाठ को सुना। उन्होंने अपनी मां के बारे में कविता पढ़ी। मोटे तौर पर शीर्षक का अनुवाद था 'सोती हुई मां'। उनकी पढ़ी एक अन्य कविता का अर्थ है- 'दुनिया में आतंक है तो दुनिया में प्यार भी है। मोहब्बत से भरी है यह दुनिया।'
लेखक ने अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में भी बताया। नाइजीरियाई वाचिक परंपरा व आधुनिक विश्व का संगम अपनी रचनाओं में करने वाले इस लेखक के साथ बातचीत की चंद्रहास चौधरी ने।
एक अन्य सत्र में 'द पावर ऑफ मिथ' यानी मिथकों की शक्ति के बारे में लेखक गुरुचरण दास ने अरशिया सत्तार, जौहर सिरकार व अमिष त्रिपाठी से चर्चा की।
त्रिपाठी की भारतीय पौराणिकता के फॉर्मेट में लिखी दो किताबें 'द इम्मोरटल्स ऑफ मेहुला' व 'द सीक्रेट ऑफ नागास' बहुत चर्चित हुई हैं। इन किताब की प्रतियां लाखों में बिक चुकी हैं। इसे पौराणिक किस्सों के जादुई तिलस्म का प्रतीक मानें या और कुछ, फिलहाल तो पौराणिकता फिर चर्चा में है।
पौराणिक प्रतीकों की शक्ति की चर्चा करते हुए वक्ताओं ने कहा- 'पौराणिक किस्से हमें रस्मों और परंपराओं के रूप में प्रदान किए जाते हैं। इनमें से कुछ हमारे लिए धर्म का हिस्सा भी बन जाते हैं। पर कुल मिलाकर यह सदियों से बहते आए ज्ञान की गंगा बन जाते हैं। पौराणिक किस्से एक ऐसा झूठ है जो सच बताते हैं। इन किस्सों की कल्पना की उड़ान पढ़ने-सुनने का जादू जगाती है। अक्सर इन किस्सों के पात्र पर थीम कालातीत होती है।'
तमिल में लिखने वाली दलित लेखिका बामा फॉस्टीना ने अपने आत्मकथात्मक उपन्यास कारुकू की रचना प्रक्रिया के बारे में बताया। तमिलनाडु के दूर-दूरस्थ गांव में रहते पली-बढ़ी लेखिका ने कहा- कारुकू का मतलब पान की कटीली पत्ती होता है। उनके समुदाय ने वैसा ही जीवन जिया है। बामा के उपन्यास को कई प्रकाशकों ने अस्वीकृत कर दिया था। अंततः एक चेरिटेबल ट्रस्ट ने इसे प्रकाशित किया और पढ़ने पर पाठकों ने इसे सराहा।
इसी सत्र में तमिल लेखक चारू निवेदिता ने भी अपना वक्तव्य रखा। विषय प्रवर्तन किया लेखिका व आयोजन की निदेशक नमिता गोखले ने। शब्द जगत के अलावा सुनहले पर्दे पर साहित्य लिखने वाले भी यहां मौजूद हैं व विभिन्न सत्रों में भागीदारी कर रहे हैं। गुलजार प्रसून जोशी के साथ अपने कहानी सत्र में छाए रहे। इन दोनों को सुनने के लिए दर्शकों में इतनी आतुरता थी कि आयोजकों को वेन्यू बदलना पड़ा। विधुविनोद चोपड़ा, अनुपमा चोपड़ा, संजना कपूर आदि फिल्मी हस्तियां भी हैं। लोग उत्साह और एकाग्रता से विश्लेषण सुन रहे हैं।
 
प्रस्तुतिः निर्मला भुरा‍ड़‍िया

तुम्हारी पलकों की कोर पर...........''फाल्गुनी''

कुछ मत कहना तुम
मैं जानती हूँ

मेरे जाने के बाद
वह जो तुम्हारी पलकों की कोर पर
रुका हुआ है
चमकीला मोती
टूटकर बिखर जाएगा
गालों पर

और तुम घंटों अपनी खिड़की से
दूर आकाश को निहारोगे

समेटना चाहोगे
पानी के पारदर्शी मोती को,
देर तक बसी रहेगी
तुम्हारी आँखों में
मेरी परेशान छवि

और फिर लिखोगे तुम कोई कविता
फाड़कर फेंक देने के लिए...

जब फेंकोगे उस
उस लिखी-अनलिखी
कविता की पुर्जियाँ,
तब नहीं गिरेगी वह
ऊपर से नीचे जमीन पर
बल्कि गिरेगी
तुम्हारी मन-धरा पर
बनकर काँच की कि‍र्चियाँ...
चुभेगी देर तक तुम्हें
लॉन के गुलमोहर की नर्म पत्तियाँ।

----स्मृति आदित्य जोशी ''फाल्गुनी''
http://yashoda4.blogspot.in/2012/07/blog-post_10.html

Tuesday, May 28, 2013

लो चल बसा.................रमेश दत्त शर्मा




मुद्दत से था इंतजार, लो चल बसा।
यारो तुम्हारा यार, लो चल बसा।।

ख़ाली पेट ही खाता रहा धोखे।
कितना था होशियार, लो चल बसा।।

ज़मानेभर को शिकायत थी।
आदमी था बेकार, लो चल बसा।।

न जाने कितनों का क़र्ज बाकी था।
छोड़कर उधार, लो चल बसा।।

कोई तभी उससे ख़ुश नहीं था।
सब लोग थे बेजार, लो चल बसा।।

अब खुश रहो अहले वतन।
एक ही था गद्दार, लो चल बसा।।

रोने-धोने से अब क्या फ़ायदा।
तुमने ही दिया मार, लो चल बसा।।

बाद मरने के याद आएगा 'रमेश'
था कितना खुद्दार, लो चल बसा।।

---रमेश दत्त शर्मा

Monday, May 27, 2013

आईना.................डॉ. परमजीत ओबराय





आईना वही है
चेहरे बदल गए
पुराने चेहरे लगे दिखने
अब नए-नए।

भावनाएं डूब गईं अब अंतर्गुहा में
दिखावा हो गया प्रधान
आज के इस जहान में।

रिश्ते वही
व्यवहार बदल गए
धरती वही है
लोग बदल गए
आत्मा है वही
शरीर बदल गए
हेर-फेर के इस प्रांगण में
हृदय बदल गए।

भगवान है तुझमें
न दिया ध्यान तूने
आकर, रहकर शरीर घट में
बिना आदर पाए
चले गए।

बाद में पछताने से क्या होगा
शरीर तो अब मिट्टी में मिल गए।

- डॉ. परमजीत ओबराय
रचनाकार अप्रवासी भारतीय हैं

Sunday, May 26, 2013

नहीं जानती क्यों....."फाल्गुनी"

 
नहीं जानती क्यों
अचानक सरसराती धूल के साथ
हमारे बीच
भर जाती है आंधियां
और हम शब्दहीन घास से
बस नम खड़े रह जाते हैं

नहीं जानती क्यों
अचानक बह आता है
हमारे बीच
दुखों का खारा पारदर्शी पानी
और हम अपने अपने संमदर की लहरों से उलझते
पास-पास होकर
भीग नहीं पाते...

नहीं जानती क्यों
हमारे बीच महकते सुकोमल गुलाबी फूल
अनकहे तीखे दर्द की मार से झरने लगते हैं और
उन्हें समेटने में मेरे प्रेम से सने ताजा शब्द
अचानक बेमौत मरने लगते हैं..
नहीं जानती क्यों.... 

--स्मृति आदित्य "फाल्गुनी"

Saturday, May 25, 2013

बुद्ध जयन्ती पर विशेष.......यशोदा



भगवान बुद्ध मुस्कराए
वो तो हरदम
रहते हैं धीर-गम्भीर
पर मुस्कुराए जरूर
पर....
एक बार मात्र..
जब..
महामना ए पी जे अब्दुल कलाम
राष्ट्रपति थे...और
श्रद्धेय श्री अटल जी प्रधान मंत्री....
तब की साल
भगवान श्री बुद्ध..की
धीरता-गम्भीरता
मुस्कुराहट में बदल गई थी..
पर आज-कल की राजनीतिज्ञों
की गतिविधियाँ उन्हें रुला कर
ही मानेगी....
-यशोदा

Wednesday, May 22, 2013

फूलों पे रख दिए हैं शबनम ने कैसे मोती.........कुसुम सिन्हा


हवाओं में ऐसी ख़ुशबू पहले कभी न थी
ये चाल बहकी बहकी पहले कभी न थी

ज़ुल्फ़ ने खुलके उसका चेहरा छुपा लिया
घटा आसमा पे ऐसी पहले कभी न थी

आँखें तरस रहीं हैं दीदार को उनके
दिल में तो ऐसी बेबसी पहले कभी न थी

फूलों पे रख दिए हैं शबनम ने कैसे मोती
फूलों पे ऐसी रौनक पहले कभी न थी

यादों की दस्तकों ने दरे दिल को खटखटाया
आती थी याद पहले पर ऐसी कभी न थी

--कुसुम सिन्हा--
 

Tuesday, May 21, 2013

आज के बच्चे इसे उसूल पुराने कहेंगे.......निधि मेहरोत्रा



मुहब्बत की बात जब भी दीवाने कहेंगे

मेरे ज़ब्त की इन्तेहा के फ़साने कहेंगे


तेरी छुअन से मुझपे जो चढता है खुमार

उतना नशा किसी में नहीं ये पैमाने कहेंगे


सारा दिन निकल जाता है भागम भाग में

आज दिल की बात तेरे सिरहाने कहेंगे


बहुत बोल चुके हम तेरी महफ़िल में

अब तुझे हाल ए दिल सुनाने कहेंगे


हर बार कहते हो कि पक्का, अगली बार

क़सम से अब तो हम इसे बहाने कहेंगे


प्यार करो तो आखिरी दम तक निभाओ

आज के बच्चे इसे उसूल पुराने कहेंगे
 
--निधि मेहरोत्रा

संवरने को जी चाहता है.................."चरण"


कई बार क़त्ल करने को जी चाहता है ,
कई बार स्वयं मरने को जी चाहता है .

हो गए हालात इस कदर बदतर ,
हद से गुजरने को जी चाहता है .

थक गया हूँ लीक पर चलते चलते ,
कुछ नया करने को जी चाहता है .

परखने को वक्त के मूसल की ताकत ,
सर ओखली में धरने को जी चाहता है .

क्षमा करना दोस्त मन में खोट नहीं ,
बस यों ही मुकरने को जी चाहता है .

जरा ठहरो मेरी अर्थी उठाने वालों ,
आखरी बार संवरने को जी चाहता है .
"चरण"
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Monday, May 20, 2013

मेरा साया भी मुइसे खफा खफा सा लगता है.........मनीष गुप्ता



ज़िंदगी फ़कीराना सी होने लगी है शायद
आता जाता हर शख्स खुदा सा लगता है

दुआओं का असर कुछ यूँ हो रहा है मुझ पर
जिस्म और रूह में अब फासला सा लगता है

एहसास के कतरे भीगी पलकों पे ठहरे हैं
ख्याबों का कोई थका कारवाँ सा लगता है

न कीजिये अब मुझसे मुहब्बत की बातें आप
इंतजारे-इश्क़ में हर लम्हा सजा सा लगता है

धड़कनें कहती हैं दिल से जब जुदाई की दास्ताँ
तुम्हारे बिना ये जीना एक गुनाह सा लगता है

बुनता रहता है धूप में अक्सर यादों के सपने
मेरा साया भी मुइसे खफा खफा सा लगता है

---मनीष गुप्ता

Sunday, May 12, 2013

'छोटी-सी उमर परणायी रे' का समझें मर्म..... भास्कर ब्लाग


आखातीज....... 
               क ऐसी तिथि, जो अब अबूझ मुहूर्त के नाम से नहीं, बल्कि बाल-विवाहों के कारण अधिक खबरों में रहती है। आम धारणा है कि इस तिथि को विवाह के लिए मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता नहीं होती। यही एक बड़ा कारण है कि राजस्थान-मध्यप्रदेश ही नहीं, देशभर में इस दिन बाल विवाह भी संपन्न करा दिए जाते हैं। जिन जातियों में इस तिथि को बाल विवाह कराए जाते हैं, वे तो सालभर इस दिन की बाट जोहती हैं और तय कार्यक्रम के अनुसार बच्चों का विवाह रचा दिया जाता है। उनका भी, जो पोतड़ों में होते हैं। बाल विवाह निषेध कानून होने के बाद भी आखिर ऐसा क्यों?



            इए। इसके कारण ढूंढ़ते हैं। पहला कारण है सामाजिक सुरक्षा। हमारे देश का मुगलकालीन इतिहास उठाकर देखें तो इसके पीछे का बड़ा कारण यही है कि उस वक्त टुकड़ों में बंटे देश में महिला सुरक्षा को लेकर जिस तरह के हालात बने, उनमें महिला सुरक्षा का सबसे बड़ा कवच बाल विवाह को ही माना गया। यही कारण है कि तब से शुरू हुआ बाल विवाहों का सिलसिला अभी भी जारी है। तब भी, जब इसे अपराध मानकर देश में कड़े दंड की व्यवस्था की गई है।



               दूसरा है शिक्षा का अभाव। दरअसल बाल विवाहों का बोलबाला राजस्थान ही नहीं, देश के हर उस राज्य में अधिक है, जहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम है। इसके अभाव में रूढिय़ों में बंधे लोग जानते ही नहीं कि इसके दुष्परिणाम क्या होते हैं। शिक्षा के अभाव में होने वाले बाल विवाहों का दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता और बुजुर्गों द्वारा की गई इस गलती का खमियाजा वे युवा भुगतते हैं, जिन्हें बचपन में इस बेहद जिम्मेदार बंधन में बांध दिया जाता है।



                     बाल-विवाहों के पीछे तीसरा बड़ा कारण है दहेज प्रथा। यूं तो सदियों से विवाह के बाद विदाई के वक्त माता-पिता द्वारा बेटी को गृहस्थी के काम आने वाला सामान देने का रिवाज रहा है। उसे सामाजिक मान्यता भी मिली है। लेकिन इस अवसर पर जिस तरह से भारी-भरकम दहेज की मांग की जाती है, उसे देखते हुए भी बाल विवाह करा दिए जाते हैं।



               माज में स्त्री-पुरुष के साथ रहने की पहली अनिवार्य शर्त होती है विवाह। सामाजिक मान्यताओं को मानें। कोई ऐसा कार्य नहीं करें कि एक सभ्य समाज की व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हों। लोक-लिहाज और मर्यादाओं के लिए यह जरूरी भी है। इसी समाज में बाल विवाह को अपराध माना गया है। इसलिए कि इसके बाद जिस उमर में विवाहित जोड़े का गौणा किया जाता है, वह उमर उनके साथ रहने की नहीं होती। माता-पिता द्वारा की गई गलती का दुष्परिणाम यह होता है कि अपरिपक्व उम्र में युवतियां मां बनती हैं। इससे उनका स्वास्थ्य तो खराब होता ही है, मातृ-शिशु मृत्यु दर में भी इजाफा होता है। अज्ञानतावश ही सही, इस स्थिति के लिए वे माता-पिता और समाज जिम्मेदार हैं, जो एक रूढि़ को ढोते हुए अक्षय तृतीया को बाल विवाह संपन्न कराते हैं। रोक के बावजूद बाल विवाह होने के लिए वे लोग भी उत्तरदायी हैं, जो हर साल बाल विवाहों पर मौन साधे रहते हैं।


                 मय की मांग है कि हम सभी 'छोटी-सी उमर परणायी रे बाबोसा, कियो थारो कांई रे कसूर' के मर्म को समझें। अपनी जिम्मेदारी निभाएं कि कुछ भी हो जाए, हम अपने आसपास किसी सूरत में बाल विवाह नहीं होने देंगे। यह संकल्प जब हम ले लेंगे तो कोई बाल विवाह राजस्थान-मध्यप्रदेश तो क्या, किसी भी राज्य में नहीं होगा। सही मायनों में देखें तो ऐसे संकल्पों से ही हम उन बच्चों को बाल विवाह के उस अभिशाप से बचा पाएंगे, जिसमें किसी और की करनी का फल किसी और को भुगतना पड़ता है। जिम्मदारों को भी न केवल बाल विवाह रोकने चाहिए, बल्कि इसके दुष्परिणामों के प्रति लोगों को जागरूक भी करना चाहिए।


यशोदा दिग्विजय अग्रवाल  द्वारा संकलित.....
24 अप्रेल 2012 को फेसबुक में नोट्स के रूप में प्रकाशित
अप्रेल 2012 में दैनिक भास्कर में प्रकाशित ब्लाग



Saturday, May 11, 2013

तेरे इश्क ने मुझे घरवाला बना दिया......हरि पौडेल

जामे तेरे हाथों की कीमत थी कुछ ऐसी
तेरे इश्क ने मुझे दिवाला बना दिया

ये पायल की झंकार से जो टूटी मेरी महल
तेरे इश्क ने उसे घुड़शाला बना दिया

नवाब थे हम भी अपने सल्तनत की
तेरे इश्क ने मुझे निराला बना दिया

अर्जी चढ़ाई जाती हमारी दहलीज मे
तेरे इश्क ने उसे मधुशाला बना दिया

दौलत थी पास मे तो हर शाम रंगीन थी
तेरे इश्क ने मुझे घरवाला बना दिया

-हरि पौडेल

Thursday, May 9, 2013


अभी-अभी जो चली हवा,
एक सर्द सा एहसास हुआ,..

दिल को करार सा मिला,
दर्द जाने कंहा गुम हुआ,..

गालों पे लुढ़क आई बूंदे,
आंखो को जाने क्या हुआ,..

मेरे लब जरा सा हंस दिए,
बेचैनियों को विदा किया,..

सब सोचने लगे मुझे देखकर,
अचानक मुझे ये क्या हुआ,..

नम थी मेरी आंखे भले ही,
पर खुशी का अहसास हुआ,..

कोई आकर न मुझसे मिला,
न बात,न ही कोई वादा हुआ,..

पर ये हवांए यूंही नही चली,
बेसबब तो कुछ भी न हुआ,..

जिसके लिए तरसी ये आंखे,
मैं जानती हूं "वो" आ गया,
---प्रीति सुराना

"मातृ दिवस" ...........यशोदा



हर वर्ष की तरह आज..
"मातृ दिवस"
मनाया जा रहा है
बस एक दिन.....
माँ का सम्मान किया जाता है


 

क्या माँ..........
वो इसी एक दिन....... 
के लिये होती है
बाकी के....
तीन सौ चौंसठ दिन
वो शायद 
चाकरी करती है....
अपने बच्चों की...
अपने पति की..
निःस्वार्थ भावना लिये
और देर रात...
दुबक जाती है...
घर के किस कोने में
और संचय करती है
बल...
आने वाले कल के लिये 

--यशोदा

Tuesday, May 7, 2013

ऐ दिल-ए-नादाँ न धड़क............कैफ़ भोपाली

कौन आयेगा यहाँ कोई न आया होगा
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा

दिल-ए-नादाँ न धड़क, ऐ दिल-ए-नादाँ न धड़क
कोई ख़त लेके पड़ोसी के घर आया होगा

गुल से लिपटी हुई तितली को गिराकर देखो
आँधियों तुम ने दरख़्तों को गिराया होगा

'कैफ़' परदेस में मत याद करो अपना मकाँ
अब के बारिश में उसे तोड़ गिराया होगा

---कैफ़ भोपाली

Sunday, May 5, 2013

खट्‍टी चटनी-जैसी माँ....................निंदा फाज़ली




बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्‍टी चटनी-जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा, फुकनी-जैसी माँ

बान की खुरीं खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थक‍ी दोपहरी-जैसी माँ

चिडि़यों की चहकार में गूँज़े
राधा-मोहन, अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुण्डी-जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी-थोड़ी-सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी -जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा, माथा
आँखें जाने कहाँ गईं
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की-जैसी माँ। 


--निंदा फाज़ली

पढ़िये और सुनिये भी..........

तिनका ही था कमज़ोर सा, उसका मुक़द्दर, देखना.... अदा


 
किस्मत की वीरानियों का, मेरा वो मंजर, देखना
हैराँ हूँ घर की दीवार के, उतरे हैं सब रंग, देखना

उड़ता रहा आँधियों में वो, जाने कितना दर-ब-दर
तिनका ही था कमज़ोर सा, उसका मुक़द्दर, देखना

पोशीदा है ज़मीन के, हर ज़र्रे पर दिलकश बहार
उतरो ज़रा आसमान से, आएगी नज़र वो, देखना

सोया किया क़रीब ही, फ़रिश्ता दश्त-ए-दिल का
ख़ुशबू सी उसकी बस गई, महका है शजर, देखना

इश्क़ के दावे उनके, अब तो हो गए आसमाँ-फरसा
हम भी देखें उनकी अदा, और तुम भी 'अदा', देखना

'अदा'


Saturday, May 4, 2013

शायद ज़िंदगी बदल रही है!!.....................सम्भवी शर्मा(||**sonuvishal**||)



शायद ज़िंदगी बदल रही है!!
जब मैं छोटा था, शायद दुनिया
बहुत बड़ी हुआ करती थी..

मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक



का वो रास्ता, क्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान,
बर्फ के गोले, सब कुछ,

अब वहां "मोबाइल शॉप",
"विडियो पार्लर" हैं,
फिर भी सब सूना है..

शायद अब दुनिया सिमट रही है...
.
.
.
जब मैं छोटा था,
शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं...

मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस",वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,

अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है
और सीधे रात हो जाती है.

शायद वक्त सिमट रहा है..

.
.
.

जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती
बहुत गहरी हुआ करती थी,

दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना,
वो लड़कियों की बातें,
वो साथ रोना...
अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी "traffic signal" पे मिलतेहैं
"Hi" हो जाती है,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,

होली, दीवाली, जन्मदिन,
नए साल पर बस SMS जाते हैं, 
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..
.
.

जब मैं छोटा था,
तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग,
पोषम पा, कट केक, टिप्पी टीपी टाप.
अब internet, office,
से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है.
.
.
.
जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
जो अक्सर कबरिस्तान के बाहर
बोर्ड पर लिखा होता है...
"मंजिल तो यही थी,
बस जिंदगी गुज़र गयी मेरी
यहाँ आते आते"
.
.
.
ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है... 
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..
अब बच गए इस पल में..
तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
हम सिर्फ भाग रहे हैं..  
कुछ रफ़्तार धीमी करो, मेरे दोस्त,
और  
इस ज़िंदगी को जियो...
खूब जियो मेरे दोस्त.


J With Lots of Care & Love J
Have a nice day........
Shambhavi

4A/9 Shambhavi Residency
Jagdamba Path
North S.K Puri
Boring Road
Patna-1
सौजन्यः

||**sonuvishal**||

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