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Monday, August 30, 2021

काश कि चित्रकार होती ....निधि सक्सेना

काश कि चित्रकार होती
तो इन चरणकमलों को अपनी कूची से उकेरती
यूँ खो जाती इनमें..
काश कि मूर्तिकार होती
तो मूर्ति गढ़ती
यूँ नाता जोड़ती इनसे..
काश कि कवि होती
काव्य रचती
यूँ सुख पाती ..
परन्तु मैं अकिंचन
न रंग न शब्द न छैनी
केवल भावनाएं हैं
वो भी कभी उफनती किलकती
कभी लड़खड़ाती
वही अर्पित करती हूं श्रीहरि
अपने अंक लगाए रखना
तुममें ही डूबूं तिरुं
प्रेम की अलख जगाए रखना...
-निधि सक्सेना

Sunday, January 17, 2021

स्त्री विमर्श ...निधि सक्सेना

एक युवा पुरुष को
अलग अलग उम्र की स्त्रियां
अलग अलग स्वरूप में देखेंगी..
नन्ही बच्ची उसे पिता या भाई सा जानेगी..
युवा होगी तो झिझकेगी सकुचायेगी
उसमें सखा या मित्र खोजेगी..
प्रौढ़ा होगी तो उसे अनायास ही वो अपने पुत्र सा दिखाई देगा..
और वृद्धा हुई तो उसे देखते ही उसका पोपला मुख कह उठेगा
बिल्कुल मेरे पोते सा है ..
परंतु एक युवा स्त्री
अलग अलग उम्र के पुरुषों को
केवल एक स्वरूप में दिखाई देगी
स्त्री स्वरूप में
विशुद्ध स्त्री स्वरूप...
कि स्त्रियां उम्र के हिसाब से परिपक्व होना जानती हैं..
- निधि सक्सेना

Tuesday, June 30, 2020

पानी सी होती हैं स्त्रियां ...निधि सक्सेना


पानी सी होती हैं स्त्रियाँ
हर खाली स्थान बड़ी सरलता से
अपने वजूद से भर देती हैं
बगैर किसी आडंबर के
बगैर किसी अतिरंजना के..
आश्चर्य ये
कि जिस रंग का अभाव हो 
उसी रंग में रंग जाती हैं ..
जाड़े में धूप ..
उमस में चांदनी ..
आँसुओं में बादल..
उदासी में धनक..

छोटी बहन को एक भाई की कमी खटकी
बड़ी ने तुरंत कलाई आगे बढ़ाई
राखी सिर्फ बंधवाई ही नहीं
बल्कि राखी का हर कर्तव्य 
खुशी खुशी निभाया..

माँ बाबा को बेटा चाहिए था
बेटी न जाने कब बेटा बन गई
और आजीवन बनी रही..
जब जब राष्ट्र को शूरवीरों की आवश्यकता हुई
बेटियों ने हर संकोच त्याग
केसरिया चोला ओढ़ा..
और जब जब किन्ही बच्चों ने पिता की 
अनुपस्थिति में उन्हें याद किया
माओं ने यह दायित्व भी बखूबी निभाया..
उन्होंने ममता और वात्सलय में
थोड़ा अनुशासन
और पूरी जिम्मेदारी मिलाई
और लो बन गई पापा वाली मां...
कि यूँ ही नही बन जाती हैं स्त्रियाँ
शक्ति पुंज..

~निधि सक्सेना

Tuesday, June 2, 2020

संस्कारों में व्यथा उलझ गई .....निधि सक्सेना

तनिक ठहरो
रुको तो
देखो साड़ी में पायल उलझ गई
कि दायित्व में अलंकार उलझ गए
संस्कारों में व्यथा उलझ गई..
कल भी ऐसा ही हुआ था
कल भी पुकारा था तुम्हें
कल भी तुम न रुके..
सुनो ये वही पायल हैं
जो मैंने भांवरों में पहनी थी
ये साक्षी हैं तुम्हारे उस वचन की
कि तुम मुझे अनुगामिनी नहीं
सखा स्वीकारोगे..
तुम मेरे स्वामी नहीं
मित्र बनोगे..
अब यहां आओ
और इसे सुलझाओ
सुलझाओ कि मैं  
तुम्हारे दायित्वों को 
अलंकार की भांति घारण करूँ..
सुलझाओ की 
संस्कारों के वहन में 
हम सहभागी हैं
सुलझाओ कि इस यात्रा की 
परिणति ही प्रेम  है..
-निधि सक्सेना

Monday, November 11, 2019

मुक्त रखने का वादा है मेरा ...निधि सक्सेना

एक समय वो भी रहा
जब हर चीज़ कस कर पकड़ने की आदत थी
चाहे अनुभूतियाँ हों
पल हों
रिश्ते हों
या कोई मर्तबान ही
मुट्ठियाँ भिंची रहती

जब स्थितियाँ बदलतीं
और चीज़े हाथ से फिसलती
तो नाखूनों में रह जाती किरचनें
स्मृतियों की
लांछनों की
छटपटाहटों की
कांच की

अजीब सा दंश था
कि मैं दिन भर नाखून साफ करती
और रात भर किरचनों की गर्त मझे खरोंचती
वक्त उन्ही किरचनों में भटकता रहता
मैं बेबसी और कुंठा से भरती जाती

परंतु अब सीख लिया है
चीज़ों को हल्के हाथ से पकड़ना
वक्त को मुक्त रखना
जाती हुई चीज़ो को विसर्जित कर देना

नाखूनों में कोई किरचन गर रह गई हो
तो बगैर गौर किये
भूलते जाना भुलाते जाना

कि ऐ जिन्दगी
उम्मीद का सेहरा बाँध कर आना
तुझे बीते वक्त की हर किरचन से 
मुक्त रखने का वादा है मेरा.
-निधि सक्सेना

Saturday, November 9, 2019

अपना बना कर देखो ना ..निधि सक्सेना

ग़ैरों को अपना बनाने का हुनर है तुममें
कभी अपनो को अपना बना कर देखो ना..

ग़ैरों का मन जो घड़ी में परख लेते हो
कभी अपनो का मन टटोल कर देखो ना..

माना कि ग़ैरों संग हँसना मुस्कुराना आसां है
कभी मुश्किल काम भी करके देखो ना..

कामकाजी बातचीत ज़रूरी है ज़माने से
कभी अपनो संग ग़ैरज़रूरी गुफ़्तगू भी कर देखो ना ..

इतने मुश्किल नहीं जो अपने हैं
कभी मुस्कुरा कर हाथ बढ़ा कर देखो ना..
चित्र कविताकोश से
-निधि सक्सेना
फेसबुक से

Friday, July 26, 2019

आत्मविश्वास से कदम आगे बढ़ाओ ....निधि सक्सेना

सुनो लड़कियों
अपने पैरों का खास ख्याल रक्खो..
देखो एड़ियाँ कटी फटी न हों
नाखून ठीक आकार लिए हों
बढ़िया नेल पॉलिश लगी हो..
इसलिये भी कि इन्ही से दौड़ना है
अपने सपनो के पीछे
अपने अपनो के पीछे
और सबको पीछे कर के सबके आगे
तो इन्हें सर पर बैठा कर रखना होगा..

और इसलिए भी कि
व्यस्तता कितनी भी हो
गाहेबगाहे
अपने पैरों पर नज़र पड़ती ही रहती है..
अपने खूबसूरत पैर देख आत्मविश्वास 
का बढ़ जाना लाज़मी है..

चेहरा देखने तो आईना खोजना पड़ता है
या फिर किसी की आंखों में अपना अक्स देखो
मगर आजकल आंखे अंधी बहरी और गूंगी हो गई है
ईर्ष्यालु और फ़रेबी अलग
सो दूसरों की नज़रों पर क्यो निर्भर रहना
अपने खूबसूरत पावों को देख आत्ममुग्धता अनुभव करो
और 
आत्मविश्वास से कदम आगे बढ़ाओ..
-निधि सक्सेना

Saturday, June 29, 2019

सुनो ज़िंदगी ....निधि सक्सेना

नहीं ज़िंदगी
यूँ नग्न न चली आया करो 
कुरूप लगती हो 
बेहतर है कि कुछ लिबास पहन लो
कि जब शिशुओं के पास जाओ
तो तंदुरुस्ती का लिबास ओढ़ो..

जब बेटियों के पास जाओ
तो यूँ तो ओढ़ सकती हो गुलाबी पुष्पगुच्छ से सजी चुनरी
या इंद्रधनुषी रंगों से सिली क़ुर्ती
परंतु सुनो 
तुम सुरक्षा का लिबास ओढ़ना..

जो गर इत्तफ़ाक़न किसी स्त्री के पास पहुँचो
तो पहन कर जाना प्रेम बुना झालरदार सम्मान ..

जब बेटों के पास जाओ
तो समझ कर लिबास पहनना 
मत पहनना उन्माद आक्रोश
पहनना ज़िम्मेदारी वाली उम्मीद ..

पुरुषों के पास संवेदनाओं से भरा पैरहन पहन कर जाना
जिसमें ईमानदारी के बटन लगे हो ..

सुनो ज़िंदगी
किसी आँख में आँसू का आवरण मत बनना 
हाथों में मत उतरना गिड़गिड़ाहट बन कर ..

कि सुनो 
शिशु की किलकारी
बालकों की खिलखिलाहट 
बारिश का पानी
गीतों की सरगम 
घर पहुँचने की ठेलमठेल 
ये सब ख़ूबसूरत है
इन्हें पहन कर किसी का भी दरवाज़ा खटखटाओ..
फिर सुनो फुसफुसाहट वाली हँसी..
-निधि सक्सेना

Sunday, June 16, 2019

ये घट छलकता ही रहेगा ......निधि सक्सेना

मेरी ही करुणा पर
टिकी है ये सृष्टि ..
मेरे ही स्नेह से 
उन्मुक्त होते हैं नक्षत्र..
मेरे ही प्रेम से
आनंद प्रस्फुटित होता है ..
मेरे ही सौंदर्य पर 
डोलता है लालित्य ..
और मेरे ही विनय पर 
टिका है दंभ..

कि प्रेम स्नेह और करुणा का अक्षय पात्र हूँ मैं 
जितना उलीच लो 
ये घट छलकता ही रहेगा ..
-निधि सक्सेना

Friday, June 14, 2019

सिखाया गया बहना धीरे धीरे ....निधि सक्सेना

बचपन से ही मुझे पढ़ाये गए थे संस्कार
याद कराई गईं मर्यादाएँ
हदों की पहचान कराई गई 
सिखाया गया बहना
धीरे धीरे 
अपने किनारों के बीच
तटों को बचाते हुए..
मन की लहरों को संयमित रख कर 
दायित्व ओढ़ कर बहना था 
आवेग की अनुमति न थी मुझे
अधीर न होना था 
हर हाल शांत रहना था ..

उमड़ना घुमड़ना नहीं था 
धाराएँ नहीं बदलनी थीं 
हर मौसम ख़ुद को संयमित रखना
मुझसे किनारे नहीं टूटने थे
मुझसे भूखंड नहीं टूटने थे 
मुझसे भूतल नहीं टूटने थे

कि मैं तो टूट कर प्रेम भी न कर पाई..
-निधि सक्सेना

Tuesday, June 11, 2019

मानो रात से रोशनी टूटी हो ...निधि सक्सेना

स्त्री सुख की खोज में
और प्रेम की चाह में
मरीचिका की मृगी की तरह भागती रहती है 
पिता के घर से पति के घर
पति के घर से बेटे के घर ..
पुनः पुनः लौटने को ..

हर जगह से बटोरती हैं क़िस्से 
जिन्हें याद कर अतीत में झाँकती रहती है..

न जाने क्यों 
हर वर्तमान अतीत से ज़्यादा बेबस मालूम होता है 
अतीत से ज़्यादा ख़ाली ..

न जाने क्यों 
हर बार प्रेम और सुख की चाह यूँ टूटती है
मानो रात से रोशनी टूटी हो ...
-निधि सक्सेना

Saturday, May 4, 2019

राम ध्यान हैं...निधि सक्सेना

राम ध्यान  है
शान्त स्थिर
मौन गंभीर
दिव्य आलोकित 
अंधकार में प्रकाश भरा स्मित ..

कृष्ण कीर्तन  हैं
नाचते गाते 
आनंद से छलछलाते 
उन्मुक्त
सुखद सरल ..

ध्यान करो चाहे कीर्तन
स्वयं से मिलन तय है 
कि राम और कृष्ण हमारे भीतर ही तो हैं...
-निधि सक्सेना

Thursday, July 19, 2018

कहीं मन रीता न रह जाये.....निधि सक्सेना


बारिशें थोड़ी जमो अभी
बादल थोड़े थमो अभी
मुस्कुराहटें थोड़ी तिरो अभी
हँसी थोड़ी झरो अभी
अनुभूतियाँ थोड़ी रुको अभी
उम्मीदें थोड़े ठिठको अभी
रंग थोड़े ठहरो अभी
उमंग थोड़ा ठौर अभी
प्रेम थोड़ा संग अभी!!

कि अब तक बहुत होश में थी
अब कुछ बेख्याल तो हो लूँ
जिन्दगी के सिरहाने बैठ
उसे थोड़ा जी तो लूँ!!

कहीं मन रीता न रह जाये!

~निधि सक्सेना

Wednesday, January 17, 2018

इन शब्दों ने हमें असहाय किया....निधि सक्सेना


कितना अच्छा होता अगर शब्द न होते
शब्दकोश न होते
उनके निहित अर्थ न होते!!

भावनाओं के पैरहन मात्र हैं शब्द
केवल ध्वनियाँ हैं
शोर हैं
जो दूसरे के ध्यान के आधीन है
उनकी समझ पर आश्रित हैं!!

हम जितना अपने भावों को शब्दों में लपेट पाते हैं
सामने वाला केवल उतना ही समझ पाता है!

इन शब्दों ने हमें असहाय किया
कि हम अबोला पढ़ सकें
मौन सुन सकें
मन के उद्गारों को महसूस कर सकें!

जैसे नेत्रहीन विकसित कर लेता है 
हाथों का स्पर्श और आहटें देखना
और देख पाता है बिना देखे!!
बधिर विकसित कर लेता है 
अधरों के कंपन
और आँखो के उद्बोधन सुनना
और सुन पाता है बग़ैर सुने
वैसे ही बगैर शब्द 
निसंदेह हम भी 
अधिक सक्षम होते!!
विकसित कर ही लेते
मन का पढ़ना
मौन समझना!!

~निधि सक्सेना

Friday, November 3, 2017

किसी शून्य पर केंद्रित कैसे रहूँ.....निधि सक्सेना


तुम कहते हो 
मन के कोलाहल पर विजय के लिए
पीड़ा और अंतर्द्वंद्व से मुक्ति के लिए
दुःख 
और सुख के झंझावातों को समझने लिए
ध्यान लगाया करूँ!
इससे समस्त बंधन मन में ही सिमट आएंगे
भीतर आनंदामृत प्लावित होगा
मोक्ष के द्वार खुलेंगे
ज्ञान के चक्षु खुलेंगे
बुद्ध हो जाऊँगी!!
परंतु मैं ध्यान में बैठ ही नहीं पाती
अपने भीतर अकेली हो ही नहीं पाती
ख्याल अक्सर मुझे घेर लेते हैं
कभी ये ख्याल कि बेटा भूखा तो नहीं
कभी ये ख्याल कि आज रसोई में क्या बनाऊं
कभी ये ख्याल कि तुम सुरक्षित तो हो
कभी माँ 
कभी बाबा की फिक्र
अनगिनत ख्याल
असंख्य मुस्कुराहटें
अनेक दुःख
अनंत बंधन!!
इन बंधनों से मुक्त कैसे हो जाऊँ
नेह के हज़ार दायरे मुझे घेरे रहते हैं!
मैं जब आंखे बंद करती हूँ
मुझे तुम ही दिखाई देते हो
किसी शून्य पर केंद्रित कैसे रहूँ
कि मुझे तो नेह से लबालब रहना भाता है
कि जब तक तुम मुझे प्रेम से बाँधे रहोगे
मैं संतुष्ट रहूँगी
यही मोक्ष
यही निर्वाण
और समस्त ज्ञान यही!!
कि तुम साधना कर सकते हो
विलग हो सकते हो
शून्य में हर प्रश्न के उत्तर तलाश सकते हो
बुद्ध हो सकते हो!!
मुझे तो हर हाल यशोधरा ही होना होगा
राहुल को अंक लगाए रखना होगा
कदाचित् ये बंधन ही मेरी साधना है
ममत्व और स्नेह ही पूंजी हैं मेरी!!
तुम खोजो ज्ञान
मैं मथूंगी प्रेम!!
~निधि सक्सेना

Sunday, October 22, 2017

संतुष्टि छीन ली......निधि सक्सेना

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हमने उन्हें महत्वाकांक्षाएं तो दीं
परंतु धैर्य छीन लिया..
उनकी आंखों में ढेरों सपने तो बोये
पर नींदे छीन लीं..
हमने उन्हें हर परीक्षा के लिए तैयार किया
परंतु परीक्षा के परे की हर खुशी छीन ली..
हमने किताबी ज्ञान खूब उपलब्ध कराया
परंतु संवेदनायें छीन लीं..
हमने उन्हें प्रतिद्वंदी बनाया
पर संतुष्टि छीन ली..
हमने उन्हें तर्क करना सिखाया
परंतु आस्थायें छीन लीं..
हमने उन्हें बार बार चेताया
और विश्वास छीना..
हमने उन्हें उड़ना सिखाया
और पैरों के नीचे से जमीन छीन ली..
सच !! 
हम सा लुटेरा अभिभावक पहले न हुआ होगा..
~निधि सक्सेना

Tuesday, September 12, 2017

माँ....निधि सक्सेना


तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हें हर जगह खोजा 
अलार्म की आवाज़ में..
छौंक की गंध में..
रामचरितमानस के पाठ में..
हर दर्द की दवा में..
बाबा के किस्सों में..
भाई की आंखों में
बेटे की मुस्कान में..
हर जगह थोड़ा थोड़ा पाया तुम्हें...
और उस रोज अचानक तुम मुझे समूची मिलीं
जब मैंने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी
बड़ी सी लाल बिन्दी लगाई
हाथ भर चूड़ियाँ पहनी
माँग भर सिंदूर लगाया
और जैसे ही आईने के सामने खड़ी हुई
खिड़की से एक सूर्य किरण
मेरे मुख पर बिखर
मुझे दीपदीपा गई...
तुम बिलकुल ऐसी ही थीं
उजली और देदीप्यमान...
~निधि सक्सेना

Thursday, August 31, 2017

हार कर कहती 'कुछ नही'.....निधि सक्सेना


अक्सर तुम शाम को घर आ कर पूछते
आज क्या क्या किया??
मैं अचकचा जाती
सोचने पर भी जवाब न खोज पाती
कि मैंने दिन भर क्या किया 
आखिर वक्त ख़्वाब की तरह कहाँ बीत गया..
और हार कर कहती 'कुछ नही'
तुम रहस्यमयी ढंग से मुस्कुरा देते!!
उस दिन मेरा मुरझाया 'कुछ नही' सुन कर
तुमने मेरा हाथ अपने हाथ मे लेकर कहा
सुनो ये 'कुछ नही' करना भी हर किसी के बस का नहीं है
सूर्य की पहली किरण संग उठना
मेरी चाय में ताज़गी 
और बच्चों के दूध में तंदुरुस्ती मिलाना
टिफिन में खुशियाँ भरना
उन्हें स्कूल रवाना करना
फिर मेरा नाश्ता
मुझे दफ्तर विदा करना
काम वाली बाई से लेकर
बच्चों के आने के वक्त तक
खाना कपड़े सफाई 
पढ़ाई..
फिर साँझ के आग्रह
रात के मसौदे..
और इत्ते सब के बीच से भी थोड़ा वक्त
बाहर के काम के लिए भी चुरा लेना
कहो तो इतना 'कुछ नही' कैसे कर लेती हो..
मैं मुग्ध सुन रही थी..
तुम कहते जा रहे थे
तुम्हारा 'कुछ नही' ही इस घर के प्राण हैं
ऋणी हैं हम तुम्हारे इस 'कुछ नही' के
तुम 'कुछ नही' करती हो तभी हम 'बहुत कुछ' कर पाते हैं ..
तुम्हारा 'कुछ नही'
हमारी निश्चिंतता है 
हमारा आश्रय है
हमारी महत्वाकांक्षा है..
तुम्हारे 'कुछ नही' से ही ये मकां घर बनता है
तुम्हारे 'कुछ नही' से ही इस घर के सारे सुख हैं
वैभव है..
मैं चकित सुनती रही 
तुम्हारा एक एक अक्षर स्पृहणीय था 
तुमने मेरे समर्पण को मान दिया
मेरे 'कुछ नही' को सम्मान दिया
अब 'कुछ नही' करने में मुझे कोई गुरेज़ नही..
बस तुम प्रीत से मेरा मोल लगाते रहना
मान से मेरा श्रृंगार किया करना...
~निधि सक्सेना

Tuesday, August 1, 2017

पेड़ सी होती है स्त्री.....निधि सक्सेना



पेड़ सी होती है स्त्री
भावों और अनुभावो की असंख्य पत्तियों से लदी
विभिन्न प्रकार की पत्तियाँ
उमंग की पंखाकार पत्तियाँ..
सपनों की छुईमुई सी पत्तियाँ ..
अकुलाहट की त्रिपर्णी पत्तियाँ ..
ईर्ष्या की दंतीय पत्तियाँ ..
कुंठा की कंटीली पत्तियाँ
क्षोभ और प्रतिशोध की भालाकार पत्तियाँ ..
प्रतीक्षा की कुंताभ पत्तियाँ ..
स्नेह की हृदयाकार पत्तियाँ ..
प्रेम की एकपर्णी पत्तियाँ ..
पतझड़ भी एक सतत् प्रक्रिया है
भाव झड़ते रहते हैं
पुनः पुनः अंकुरित होने को
बहुधा कोई भाव मन के किसी प्रच्छन्न कोने में ठहर जाता है 
फलित होकर पुष्प बनता है..
सृष्टि की हर कविता इसी पुष्प से उपजी सुगंध है..
~निधि सक्सेना


Tuesday, July 25, 2017

एक शाश्वत सत्य ...निधि सक्सेना


घुंधला धुंधला सा स्वप्न था वो
तुम थमी थमी मुस्कुराहटों में गुम
हाथ में कलम लिए
मुझे सोचते
मुझे गुनगुनाते
मुझ पर नज़्म लिखते..
वहीं थिर गईं आँखे
वहीं स्थिर हो गया समय
सतत अविनाशी..
मैं उसी स्वप्न में कैद हो गई हूँ..
कि तुम चाहो
इससे अधिक कुछ चाह नही..
यही निर्वाण है मेरा
यही नितांत सुख..
आँखो में ठहरा ये स्वप्न
बस यही है एक शाश्वत सत्य ...
~निधि सक्सेना