कोहरे का घूंघट,
हौले से उतार कर।
चम्पई फूलों से,
रूप का सिंगार कर।
अम्बर ने प्यार से,
धरती को जब छुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।
धूप गुनगुनाने लगी,
शीत मुस्कुराने लगी।
मौसम की ये खुमारी,
मन को अकुलाने लगी।
आग का मीठापन जब,
गुड़ से भीना हुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।
हवायें हुई संदली,
चाँद हुआ शबनमी।
मोरपंख सिमट गए,
प्रीत हुई रेशमी।
बातों-बातों में जब,
दिन कहीं गुम हुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।
-पवन कुमार मिश्र
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteयूं तो महीना जनवरी हुआ, पर
कविता पढ़ कर दिल बाग बाग हुआ 😊
धूप की गुनगुनाहट और चाय की चुस्कियों वाला मौसम याद आ गया, जब बालकनी में बैठकर कुछ अच्छा पढ़ने का मन करता है। आपका अंदाज़ बिल्कुल वैसा ही है – नर्म, सधा हुआ और दिल से निकला हुआ। आपने ठंड के मौसम को बस नहीं लिखा, उसे महसूस करवा दिया।
ReplyDeleteDecember ka kitna kunkuna sa varnan hai! Bahut pyari rachna.
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