Monday, April 9, 2018

मुस्कुरा देते हैं बच्चे...राजेश रेड्डी

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं

जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है
जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाता हूँ मैं

सारी दुनिया से अकेले जूझ लेता हूँ कभी
और कभी अपने ही साये से भी डर जाता हूँ मैं

ज़िन्दगी जब मुझसे मज़बूती की रखती है उमीद
फ़ैसले की उस घड़ी में क्यूँ बिखर जाता हूँ मैं

आपके रस्ते हैं आसां, आपकी मंजिल क़रीब
ये डगर कुछ और ही है जिस डगर जाता हूँ मैं
- राजेश रेड्डी

7 comments:

  1. वाह... अति सुंदर

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  2. .. incredible poem....शाम को जब घर जाता हुं...दिल को छू गई ये लाईन।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-04-2017) को "छूना है मुझे चाँद को" (चर्चा अंक-2936) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत सार्थक रचना।

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  5. वाह!!बहुत खूब।

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  6. लाजवाब गजल
    वाह!!!

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