उनको बिसारकर ढूँढती हूँ।
पहर-दर-पहर ढूँढती हूँ।
खाकर ज़हर ज़िन्दगी का,
शाम को, सहर ढूँढती हूँ।
अपने लफ्जों का गला घोंट,
उनमें असर ढूँढती हूँ।
अन्तिम पड़ाव पर आज,
अगला सफ़र ढूँढती हूँ।
बर्दाश्त की हद देखने को,
एक और कहर ढूँढती हूँ।
दीवारें न हों घरों के सिवा,
ऐसा एक शहर ढूँढती हूँ।
रंग बागों का जीवन में भरे,
फूलों का वो मंजर ढूँढती हूँ।
इश्क की रूह ज़िन्दा हो जहाँ,
ऐसी इक नज़र ढूँढती हूँ।
दिल को खुश करना चाहूँ,
वादों का नगर ढूँढती हूँ।
रौशनी आते आते टकरा गई,
सीधी - सी डगर ढूँढती हूँ।
छोड़ जाय मेरे आस का मोती,
किनारे खड़ी वो लहर ढूँढती हूँ।
जो मुझे डंसता है छूटते ही,
उसी के लिये ज़हर ढूँढती हूँ।
जानती हूँ कोई साथ नहीं देता।
क्या हुआ ! अगर ढूँढती हूँ।
कौन कहता है कि मै ज़िन्दा हूँ?
ज़िन्दगी ठहर ! ढूँढती हूँ!
पत्थर में भगवान बसते हैं,
मिलते नहीं, मगर ढूँढती हूँ।
-अजन्ता शर्मा
वाह अद्भुत..
ReplyDeleteछोड़ जाय मेरे आस का मोती,
किनारे खड़ी वो लहर ढूँढती हूँ।
वाह!!
ReplyDeleteपत्थरों के शहर मे
शीशे का मकान ढूंढती हूं।
बहुत उम्दा।
वाह लाजवाब
ReplyDeleteबेहतरीन सुंदर 👌
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-04-2018) को ) "चलना सीधी चाल।" (चर्चा अंक-2951) पर होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
वाह!!!
ReplyDeleteबेहतरीन, लाजवाब...
बहुत लाजवाब...कौन कहता है मैं जिंदा हूं, जिंदगी ठहर ढूंढती हूं...
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