पैदा होते ही लड़की
डर जाती है माँ,
पनपते ही उसको देख
खिलखिलाहट पर लगाती अंकुश,
उसकी चाल, हँसी, सब पर
लगती पाबंदियाँ
और वक्त के साथ-साथ उसे
दिया जाता कभी बाप, बेटे
भाई और पति का डर,
क्यूँ आखिर क्यूँ?
कब पनप पायेगी वो
कब होगा उसका अपना दिन,
कब फैलाएगी अपने सम्पूर्ण पंख
और उड़ेगी खुले आसमान में,
शायद ज़रूरत है आज
समाज को ऐसी ही
बेड़ीहीन औरत की,
जो बना सके
सन्तान को
लौहपुरुष सा, व पैदा
कर सके फिर से
सभी अभिमन्यु।
-शबनम शर्मा
डर जाती है माँ,
पनपते ही उसको देख
खिलखिलाहट पर लगाती अंकुश,
उसकी चाल, हँसी, सब पर
लगती पाबंदियाँ
और वक्त के साथ-साथ उसे
दिया जाता कभी बाप, बेटे
भाई और पति का डर,
क्यूँ आखिर क्यूँ?
कब पनप पायेगी वो
कब होगा उसका अपना दिन,
कब फैलाएगी अपने सम्पूर्ण पंख
और उड़ेगी खुले आसमान में,
शायद ज़रूरत है आज
समाज को ऐसी ही
बेड़ीहीन औरत की,
जो बना सके
सन्तान को
लौहपुरुष सा, व पैदा
कर सके फिर से
सभी अभिमन्यु।
-शबनम शर्मा
बेहतरीन लेखन
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना.... लाजवाब
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत खूब है रचना ....
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरूवार (12-04-2017) को "क्या है प्यार" (चर्चा अंक-2938) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सच में ! समाज को आज ऐसी ही निर्भीक और सशक्त स्त्री की ज़रुरत है ! बहुत सुन्दर रचना !
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