अस्तित्व.....
और अस्मिता बचाने की लडाई
खूब लडो जुझारू हो कर लड़ो
पर रुको
सोचो ये सिर्फ
अस्तित्व की लड़ाई है या
चूकते जा रहे
संस्कारों की प्रतिछाया...
जब दीमक लगी हो नीव मे
फिर हवेली कैसे बच पायेगी
नीव को खाते खाते
दिवारें हिल जायेगी
एक छोटी आंधी भी
वो इमारत गिरायगी
रंग रौगन खूब करलो
कहां वो बच पायेगी।
नीड़ तिनकों के तो सुना
ढहाती है आंधियां
घरौंदे माटी के भी
तोडती है बारिशें
संस्कारों की जब
टूटती है डोरिया
उन कच्चे धागों पर कैसे
शामियाने टिक पायेंगे।
समय ही क्या बदला है
या हम भी हैं बदले बदले
नारी महान है माना
पर रावण, कंस भी पोषती है
सीता और द्रोपदी
क्या इस युग की बात है
काल चक्र मे सदा ही
विसंगतियां पनपती है।
पर अब तो दारुण दावानल है
जल रहा समाज जलता सदाचरण है
क्या होगा अंत गर ये शुरूआत है
केशव तो नही आयेंगे ये निश्चित है
कुछ ढूंढना होगा इसी परिदृश्य मे
अस्मिता का युद्ध स्वयं लड़ना होगा
संयम और संस्कारों को गढ़ना होगा।
- कुसुम कोठारी
वाह वाह वाह निशब्द हूँ मीता
ReplyDeleteस्नेह आभार मीता।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteजी सादर आभार ।
Deleteवाह 👏 बहुत खूबसूरत रचना. सच है कि अब केशव नहीं आएंगे. अपनी अस्मिता को खुद बचाना है.
ReplyDeleteजी सखी अपना अस्तित्व अपनी धरोहर है स्वयं ही बचाना होगा।
Deleteस्नेह आभार ।
बहुत खूब लिखा आप ने
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी।
Deleteकुछ उजड़ी हैं विरासतें
ReplyDeleteकुछ उजड़ना बाकी है
लगी कुछ देर और तो
नजारा ही देखना बाकी है.
उमीद एक संस्कारो से है थोड़ी
और सारे उपाय तो जाली हैं.
उम्दा रचना
वाह बहुत सार्थक आपकी पंक्तियां रचना को आगे बढ़ाती।
Deleteसादर आभार।
सादर आभार सखी दी मेरी रचना ने आपकी धरोहर मे अस्तित्व बनाया।
ReplyDeleteसमय ही क्या बदला है
ReplyDeleteया हम भी हैं बदले बदले
नारी महान है माना
पर रावण, कंस भी पोषती है
सीता और द्रोपदी
क्या इस युग की बात है
काल चक्र मे सदा ही
विसंगतियां पनपती है।
एक एक वाक्य कठोर प्रहार करता हुआ ! सच का सामना कराती सशक्त रचना !