मैंने पूजा की
अचर्ना की, और
भगवान प्रसन्न हुए।
बोले,
वत्सला, कुछ माँगो।
अविलम्ब, मैंने माँग लिया
मुझे पंख चाहिए
भगवान तथास्तु बोल कर
तत्काल अन्तर्धान हो गए
मैने ख़ुशी से सब को
बातें अपनी बतलायी
सबने मुझे मूर्ख समझा
और मेरी खिल्ली उड़ायी।
नासमझ!
मुझे ही बुला लिया होता!
धन-वैभव का समान माँग लिया होता!
सब की सुन रही थी
और मन ही मन
इन प्रश्नों का जाल बुन रही थी।
कब करेगा ये समाज
मेरे आन्तरिक गुणों का मूल्यांकन?
नारी हूँ मैं।
आकाश दिख रहा है
विस्तार देख लेंगें
अब पंख मिल गये हैं
उड़ान भर लेंगें !!!!!!!!
वीणा पांडे, जमशेदपुर
स्नातक (साहित्य अलंकार)
binu1247@gmail.com
अचर्ना की, और
भगवान प्रसन्न हुए।
बोले,
वत्सला, कुछ माँगो।
अविलम्ब, मैंने माँग लिया
मुझे पंख चाहिए
भगवान तथास्तु बोल कर
तत्काल अन्तर्धान हो गए
मैने ख़ुशी से सब को
बातें अपनी बतलायी
सबने मुझे मूर्ख समझा
और मेरी खिल्ली उड़ायी।
नासमझ!
मुझे ही बुला लिया होता!
धन-वैभव का समान माँग लिया होता!
सब की सुन रही थी
और मन ही मन
इन प्रश्नों का जाल बुन रही थी।
कब करेगा ये समाज
मेरे आन्तरिक गुणों का मूल्यांकन?
नारी हूँ मैं।
आकाश दिख रहा है
विस्तार देख लेंगें
अब पंख मिल गये हैं
उड़ान भर लेंगें !!!!!!!!
वीणा पांडे, जमशेदपुर
स्नातक (साहित्य अलंकार)
binu1247@gmail.com
बहुत बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-04-2017) को "उड़ता गर्द-गुबार" (चर्चा अंक-2929) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन... लाजवाब....
ReplyDeleteवाह ! संवेदना से सराबोर रचना
ReplyDeleteसमाज अपने दोष नहि देखता ...
ReplyDeleteनारी को दबाने का निरंतर प्रयास करता है ... उसके मन तक नहि पहुँच पाता ...
कोमल संवेदनशील रचना ...
वाह!!बहुत खूब .
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