कैसे मन्जिल तक पहुँचे, छाया घोर अँधेरा है!
कदम कदम यहाँ दरिंदो का लगा हुआ मेला है!
मन कहता सपनो को पूरा कर लूँ,
डर कहता दरिंदो से अपने को बचालूँ,
कैसे अर्जुन बन लक्ष्य साधू हाँथों से तीर सरकता है!
कदम-कदम पर यहाँ दरिंदो का लगा हुआ मेला है!
मन कहता सघर्षों से डरो नही तुम,
तन कहता नर भक्षी से दूर रहों तुम,
किस को मन की व्यथा सुनाऊँ पाषाण यहाँ बसते!
काँटो से रुह जख्मी होती मानव पाषाण बने हँसते!
नारी सदियों से अग्नि परीक्षा से है गुजरी ,
जीने का मोल चुकाया माँ बहन पत्नी बनी,
बाजी जब भी हारी रिश्तों के भाओं में बहते-बहते!
कामी बहसियों की दरिंदगी कदम नारियों के रोकते!
प्रदूषित हो रहा शहर-शहर व्यभिचार से,
डरी है बच्चियाँ माँ बाप देश के माहौल से,
काँटों से रूह जख्मी होती मानव पाषाण बनेहंसते!
किसको मन की व्यथा सुनाऊँ पाषाण यहाँ बसते!
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता .....बेहतरीन रचना
ReplyDeleteलाजवाब रचना.....
ReplyDeleteवाह!!!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-04-2017) को "कहीं बहार तो कहीं चाँद" (चर्चा अंक-2946) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब !!
ReplyDeletenice lines
ReplyDeletepublish your lines in book form with Online Book Publisher India