सरेआम कैसे ज़ख्मों से पर्दा हटा दूँ!
ज़िगर है घायल आहों को कैसे सुना दूँ!!
बारीकियां होती हैं ज़ख्मों की ऐ जाने ज़िगर!
किस तरह लफ़्ज़ों की माला से ग़जल बना दूँ!!
एक हम ही नही है जख्मी बेमुरव्वत जहाँ में!
हर शख़्स लहूलुहान है कैसे उसे सुकुते दर्द दूँ!!
तपती दुपहरी दर्द की जब अंतड़िया सूखने लगती!
भूख से बिलबिलाते बचपन को कैसे बांहों में भर लूँ!
ईमान, उसूल,विचार,विश्वास घायल तड़प रहें हैं!
तड़पते दर्द का एहसास कैसे सियासत को करा दूँ!!
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-उर्मिला सिंह
वाह जब पीड़ा छलक कर बाहर आने लगे शब्दों से और छू जाय किसी के मन को उस रचना की सार्थकता का कोईसंदेह नही।
ReplyDeleteगहराई तक झकझोरती रचना।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह !!! बहुत खूब
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-04-2018) को ) "चाँद की ओर निकल" (चर्चा अंक-2928) पर होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत सुंदर
ReplyDeleteक्या कहने...बहुत सुंदर.
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