वो हिम्मत करके पहले अपने अन्दर से निकलते हैं
बहुत कम लोग, घर को फूँक कर घर से निकलते हैं
अधिकतर प्रश्न पहले, बाद में मिलते रहे उत्तर
कई प्रति-प्रश्न ऐसे हैं जो उत्तर से निकलते हैं
परों के बल पे पंछी नापते हैं आसमानों को
हमेशा पंछियों के हौसले ‘पर’ से निकलते हैं
पहाड़ों पर व्यवस्था कौन-सी है खाद-पानी की
पहाड़ों से जो उग आते हैं, ऊसर से निकलते हैं
अलग होती है उन लोगों की बोली और बानी भी
हमेशा सबसे आगे वो जो ’अवसर’ से निकलते हैं
किया हमने भी पहले यत्न से उनके बराबर क़द
हम अब हँसते हुए उनके बराबर से निकलते हैं
जो मोती हैं, वो धरती में कहीं पाए नहीं जाते
हमेशा कीमती मोती समन्दर से निकलते हैं
-जहीर कुरैशी
-जहीर कुरैशी
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत उम्दा।
ReplyDeleteवाह बेहद उम्दा
ReplyDeleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-04-2017) को "डा. भीमराव अम्बेडकर जयन्ती" (चर्चा अंक-2940) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
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