Tuesday, May 23, 2017

रास्तों पर किर्चियाँ फैला रहा....मनन कुमार सिंह


वह जमीं पर आग यूँ बोता रहा
और चुप हो आसमां सोया रहा ।1।

आँधियों में उड़ गये बिरवे बहुत
साँस लेने का कहीं टोटा रहा ।2।

डुबकियाँ कोई लगाता है बहक
और कोई खा यहाँ गोता रहा ।3।

पर्वतों से झाँकती हैं रश्मियाँ
भोर का फिर भी यहाँ रोना रहा ।4।

हो गयी होती भली अपनी गजल
मैं पराई ही कथा कहता रहा ।5

चाँदनी छितरा गयी अपनी सिफत
गिनतियों में आजकल बोसा रहा ।6।

पोंछ देता अश्क मुंसिफ,था सुना,
वज्म में करता वही सौदा रहा ।7।

मर्तबा जिसको मिला,सब भूलकर
रास्तों पर किर्चियाँ फैला रहा ।8।

दिन तुम्हारे भी फिरेंगे,यह सुना
आदमी को आदमी फुसला रहा ।9।
- मनन कुमार सिंह
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2 comments:

  1. पोंछ देता अश्क मुंसिफ,था सुना,
    वज्म में करता वही सौदा रहा ।7।
    वाह ! ,बेजोड़ पंक्तियाँ ,सुन्दर अभिव्यक्ति ,आभार। "एकलव्य"

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