जंगल की कंदराओं से निकल तुम |
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम |
क्यूँ हो अभी भी दानव.... इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?
मानवता आज भी इतनी निढाल क्यूँ ?
बलात्कार हिंसा यह.....लूटमार क्यूँ ?
साथ थी विकास में संस्कृति के वह |
उसका ही इतना.......तिरस्कार क्यूँ ?
प्रकट ना हुआ था प्रेम-तत्व.....तब |
स्व-स्वार्थ निहित था आदिमानव तब |
एक माँ ने ही सिखाया होगा प्रेम...तब |
उमड़ पड़ा होगा छातियों से दूध...जब |
संभाल कर चिपकाया होगा तुझे तब |
माँस पिंड ही था एक....तू इंसान तब |
ना जानती थी फर्क...नर-मादा का तब |
आज मानव जान कर भी अनजान क्यूँ ?
जंगल की कंदराओं से निकल...तुम |
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम||
-अलका गुप्ता
अनुत्तरित रहेंगे
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDelete👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteवाह , खूबसूरत अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18.05.2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2633 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
Nice excellent, Do you want Publish your book
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