मैं एक मजदूर हूं
भगवान की आंखों से मैं दूर हूं
छत खुला आकाश है
हो रहा वज्रपात है
फिर भी नित दिन मैं
गाता राम धुन हूं
गुरु हथौड़ा हाथ में
कर रहा प्रहार है
सामने पड़ा हुआ
बच्चा कराह रहा है
फिर भी अपने में मगन
कर्म में तल्लीन हूं
मैं एक मजदूर हूं
भगवान की आंखों से मैं दूर हूं।
आत्मसंतोष को मैंने
जीवन का लक्ष्य बनाया
चिथड़े-फटे कपड़ों में
सूट पहनने का सुख पाया
मानवता जीवन को
सुख-दुख का संगीत है
मैं एक मजदूर हूं
भगवान की आंखों से मैं दूर हूं।
--राकेशधर द्विवेदी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-05-2017) को
ReplyDeleteसरहद पर भारी पड़े, महबूबा का प्यार; चर्चामंच 2626
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन मन्ना डे और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
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