हवा बजाए साँकल ..
या खड़खड़ाए पत्ते..
उसे यूँ ही आदत है
बस चौंक जाने की।
कातर आँखों से ..
सूनी पड़ी राहों पे ..
उसे यूँ ही आदत है
टकटकी लगाने की।
उसे यूँ ही आदत है ...
बस और कुछ नहीं ...
प्यार थोड़े है ये और
इंतज़ार तो बिल्कुल नहीं।
तनहा बजते सन्नाटों में..
ख़ुद से बात बनाने की..
उसे यूँ ही आदत है
बस तकिया भिगोने की।
यूँ सिसक-सिसक के..
साथ शब भर दिये के ..
उसे यूँ ही आदत है
बस जलते जाने की।
उसे यूँ ही आदत है..
बस और कुछ नहीं ...
प्यार थोड़े है ये और
तड़पन तो बिल्कुल नहीं।
-डॉ. सुषमा गुप्ता
suumi@rediffmail.com
सुन्दर।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-05-2017) को
ReplyDelete"लजाती भोर" (चर्चा अंक-2631)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बढ़िया भाव!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
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