रात की बस्ती बसी है घर चलो
तीरगी ही तीरगी है घर चलो
क्या भरोसा कोई पत्थर आ लगे
जिस्म पे शीशागरी है घर चलो
हू-ब-हू बेवा की उजड़ी मांग सी
ये गली सूनी पड़ी है घर चलो
तू ने जो बस्ती में भेजी थी सदा
लाश उसकी ये पड़ी है घर चलो
क्या करोगे सामना हालत का
जान तो अटकी हुई है घर चलो
कल की छोड़ो कल यहाँ पे अम्न था
अब फ़िज़ा बिगड़ी हुई है घर चलो
तुम ख़ुदा तो हो नहीं इन्सान हो
फ़िक्र क्यूँ सबकी लगी है घर चलो
माँ अभी शायद हो "फ़ानी" जागती
घर की बत्ती जल रही है घर चलो
तीरगी ही तीरगी है घर चलो
क्या भरोसा कोई पत्थर आ लगे
जिस्म पे शीशागरी है घर चलो
हू-ब-हू बेवा की उजड़ी मांग सी
ये गली सूनी पड़ी है घर चलो
तू ने जो बस्ती में भेजी थी सदा
लाश उसकी ये पड़ी है घर चलो
क्या करोगे सामना हालत का
जान तो अटकी हुई है घर चलो
कल की छोड़ो कल यहाँ पे अम्न था
अब फ़िज़ा बिगड़ी हुई है घर चलो
तुम ख़ुदा तो हो नहीं इन्सान हो
फ़िक्र क्यूँ सबकी लगी है घर चलो
माँ अभी शायद हो "फ़ानी" जागती
घर की बत्ती जल रही है घर चलो
-फ़ानी जोधपुरी
सौजन्यः सतपाल ख्याल
सौजन्यः सतपाल ख्याल
http://aajkeeghazal.blogspot.in/2013/09/blog-post.html
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉगर्स चौपाल पर आज की चर्चा : पीछे कुछ भी नहीं -- हिन्दी ब्लागर्स चौपाल चर्चा : अंक 012
ललित वाणी पर : इक नई दुनिया बनानी है अभी
बढ़िया प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीया-
बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,धन्यबाद।
ReplyDeleteज़मीन जब से है तबसे चलन ज़माने का
है इश्क नाम फ़क़त दिल पे चोट खाने का
Amazing imagination.
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