उल्लास और हर्ष-भरे सत्र, अब कहाँ
होते हैं लोग झूम के एकत्र अब कहाँ
सन्देश आते-जाते हैं अब तो हवाओं में
काग़ज़, क़लम, दवात कहाँ, पत्र अब कहाँ
मैं जिन पलों में सोचूँ तुम्हें, हैं वो दिव्य पल
आनन्द खोज पाऊँ मैं अन्यत्र अब कहाँ
क्यूँ मान्य होते जाते हैं फूहड़ लिबास ही
गरिमा थे जो बदन की, गए वस्त्र अब कहाँ
मन्नत भी पूरी होती है, वन्दन करो सही
यूँ मत कहो, कि आस के नक्षत्र अब कहाँ
'बापू' ने जो सिखाये 'अहिंसा' के गुर हमें
सद्भाव, आत्म-बल से भरे शस्त्र अब कहाँ
जो पढ़ सको, तो पढ़ लो इन्हीं शब्दों में मुझे
कह दूँ मैं मन के भाव यूँ, सर्वत्र अब कहाँ
थी काव्य-साधना की जो "दानिश" परम्परा
गुरु-शिष्य अब कहाँ, वो भला छत्र अब कहाँ
- दानिश भारती
सत्र=सम्मलेन, बैठकें, अन्यत्र=कहीं ओर, दूसरी जगह, नक्षत्र=ग्रह-सितारे, सर्वत्र=हर जगह, छत्र=आश्रय, शरण-स्थल, पाठशाला
शुभप्रभात
ReplyDeleteबहुत सुंदर...शुक्रिया और आभार आपका!
ज़िन्दगी एक संघर्ष -- हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल चर्चा : अंक-005
yatharth
ReplyDeleteyatharth
ReplyDeleteमैं जिन पलों में सोचूँ तुम्हें, हैं वो दिव्य पल
ReplyDeleteआनन्द खोज पाऊँ मैं अन्यत्र अब कहाँ
बहुत सुंदर उद्गार ...!!