जहां भी तुम्हें दिल के टुकड़े मिलेंगे,
वहीं चंद मोती भी बिखरे मिलेंगे,
वहीं चंद मोती भी बिखरे मिलेंगे,
मैं बैठा बुलंदी पे यूं ही नहीं हूँ,
हरे हों न हों जख्म गहरे मिलेंगे,
मेरे दिल की गहराइयों में जो उतरे,
तो दरिया में सागर के कतरे मिलेंगे,
नया इक नगर बस गया है जहां पर,
कई गाँव भी तुमको उजड़े मिलेंगे,
मेरे घर में इंसान मिलने हैं मुश्किल,
कई बेज़ुबान और बहरे मिलेंगे,
त’आल्लुक नहीं जिनसे अब मेरा कोई,
वो बुनियाद में मेरी ठहरे मिलेंगे,
भले सांस लेने में आती हो दिक्कत,
मगर जब मिलोगे तो हंस के मिलेंगे,
मेरी शायरी और तेरे जख्म “अंकुर”,
ग़ज़ल बन के सारे जहां से मिलेंगे,
-अस्तित्व "अंकुर"
सौजन्यः अन्सार कम्बरी फेसबुक से
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (20-09-2013) "हिन्दी पखवाड़ा" : चर्चा - 1374 में "मयंक का कोना" पर भी है!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर !!!
ReplyDeleteसुंदर !
ReplyDeleteबहुत खूब,सुंदर गजल !
ReplyDeleteRECENT POST : हल निकलेगा
वाह बहुत खूब
ReplyDeleteबेहद सुंदर...रचना...
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