Monday, July 27, 2020

मैं जीना चाहता हूं ....ध्रुव गुप्त

मैं जीना चाहता हूं ..

इन दिनों घर की खिड़की पर बैठे-बैठे
दिन भर देखता रहता हूं
सड़क से गुजरते इक्का-दुक्का लोगों को
मन करता है सबको
दुआ-सलाम कह के विदा करूं
क्या पता उनमें से आज के बाद कोई
दुबारा न दिखे

कोरोना के इस भयावह समय में
मौत की हर तरफ से आ रही खबरो के बीच
मुझे लगता है कि
मुझे जल्दी मिल लेना चाहिए जाकर
उन तमाम लोगों से
जिन्हें जीवन के किसी न किसी दौर में
मैंने प्यार किया था
उन तमाम अच्छे-बुरे दोस्तों से
मेरे भीतर जिनका हिस्सा रहा है
और उन जगहों से जिन्हें देखने की मेरी इच्छा
अबतक पूरी नहीं हो सकी

मेरे पास समय बहुत कम है
मैं कोई भी ट्रेन पकड़ कर
यहां से निकल जाना चाहता हूं
यहां से तमाम शहरों के लिए ट्रेनें तो हैं
मगर मेरी उम्र के लोगों को इन दिनों वे
यात्रा पर जाने की अनुमति नहीं देते

मैं अभी हर हाल में जीना चाहता हूं
मुझे जीवन का मोह नहीं है मगर
मैं ऐसे कैसे चला जाऊं
अपनों को मिलकर अलविदा कहे बगैर।

- ध्रुव गुप्त

1 comment:

  1. मजबूरी, कसक और वेदना को दर्शाती हुई भावपूर्ण रचना

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