Tuesday, July 28, 2020

वाह रे पागलपन ..ज्योति खरे

तुम्हारे चमकीले खुले बाल
मेंहदी रचे हांथ
जानबूझ कर
सावनी फुहार में भींगना
हरे दुपट्टे को
नेलपॉलिश लगी उंगलियों से
नजाकत से पकड़ना
ओढ़ना
कीचड़ में सम्हलकर चलना

यह देखने के लिए
घंटो खड़े रहते थे
मंदिर के सामने
कितना पागल था मैं

पागल तो तुम भी थी
जानबूझ कर निकलती थी पास से
कि में सूंघ लूं
देह से निकलती चंदन की महक
पढ़ लूं काजल लगी
आंखों की भाषा
समझ जाऊं
लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान--

आज जब
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की
सावनी फुहार में-

वाकई पागल थे अपन दोनों--

-ज्योति खरे

4 comments:

  1. वाह! ज्योति खरे जी को पढ़ने का एक अलग ही अहसास है।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 28 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. वाह बेहतरीन रचना

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