पुकार उसे कि अब इस ख़ामुशी का हल निकले,
जवाब आये तो मुम्किन है बात चल निकले।
ज़माना आग था और इश्क़ लौ लगी रस्सी,
हज़ार जल के भी कब इस बला के बल निकले!
मैं अपनी ख़ाक पे इक उम्र तक बरसता रहा,
थमा तो देखा कि कीचड़ में कुछ कमल निकले।
मैं जिसमें ख़ुश भी था, ज़िन्दा भी था,तुम्हारा भी था,
कई ज़माने निचोडूं तो एक पल निकले।
कुछ एक ख़्वाब वहां बो रहूंगा, सोचा है,
वो नैन अगर मेरे नैनों से भी सजल निकले।
मैं अपने हाथों को रोता था हर दुआ के बाद,
ख़ुदा के हाथ तो मुझसे ज़ियादः शल निकले।
दयार ए इश्क़ में सबका गुज़र नहीं मुम्किन,
कई जो पैरों पे आये थे,सर के बल निकले।
बहार जज़्ब है जिसमें, उसे बनाते हुए,
तमाम रंग मेरे कैनवस पे ढल निकले।
जमी हुई थी मेरी आंख इक अलाव के गिर्द,
कुछ एक ख़्वाब तो यूंही पिघल, पिघल निकले।
बदल के रख ही दिया मुझको उम्र भर के लिए,
तेरी ही तरह तेरे ग़म भी बेबदल निकले।
जो दिल में आये थे आहट उतार कर अपनी,
वो दिल से निकले तो फिर कितना पुर ख़लल निकले।
-अभिषेक शुक्ल
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