बारिश की बूंदों ने
सहला दिया,प्यासी धरती के
तन को,नम होकर,
बूंदे जब समा गई,
धरती के आगोश में,
अंकुरो की कुलबुलाहट से,
माटी हुवी बैचेन,
फाड़ धरती का सीना,
वो नन्हा अंकुर,
निकल आया बाहर,
मगर कुछ लोग,
खड़े थे,
हाथों में फवाड़े,
दिमाग में शोर मचाते,
वो भेड़िए नुमा शक्ल वालों ने,
तबाड़ -तोड़ हमले कर,
उसे मार गिराया,
बस सिर्फ इसलिए कि,
जहां गर्भ से उत्पन्न हुआ,
वो जमीन एक आदिवासी की
ज़मीन थी,क्या....?
तुम देख नहीं सकते,
उनको,फलते फुलते,
वो अपने जंगल, जमीन पर
उग आए,
अंकुरो को सहेज नहीं सकते,
अपने ही अस्तित्व को बचाए रखने के लिए,
हर सुबह गीली आंखों से,
सुखी हो चुकी,
धरती पर जीवन तलाशते
अंकुर की लंबी उम्र की दुआ करते
वो तमाशबीन क्यूं बने ...??
क्यूं खड़े रहे कतारों में,
अपने हिस्से की जमीन के लिए..!!
-अनु,,
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.7.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क