है ज़िंदगी को कैसी जलन हाय इन दिनों
है मौत के माथे पे शिकन हाय इन दिनों
शायद मेरे ज़मीर को फ़ुर्सत न आई रास
रहती है बेवजह सी थकन हाय इन दिनों
रंगत रही न शोख़ियाँ, ना ख़ुशबु ना ख़ुलूस
वीरान है हर एक अंजुमन हाय इन दिनों
या मौला इस अज़ाब ने बरपाया क्या कहर
होने लगी किल्लत-ए-कफ़न हाय इन दिनों
ताज्जुब है कि इसको कोई भी टोकता नहीं
घूमे है झूठ बे-पैरहन हाय इन दिनों
चेहरों की जगह झूठ ही मंज़ूर था हमें
सब ने लिया है नकाब पहन हाय इन दिनों
ना मिलाओ हाथ किसे से, न गले मिलो ‘अचल’
मिलने का ये नया है चलन हाय इन दिनों
- अचल दीप दुबे
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन.
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 05 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुंदर
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