परछाई छिपने लगी , देखे सूरज घूर।
पैरों में छाले पड़े, मंजिल फिरभी दूर।।
गहराया है सांझ का, रंग पुनः वह लाल।
सम्मुख काली रात है, और वक्त विकराल।।
मजबूरी अभिशाप बन, ले आती है साथ।
निर्लजता के पार्श्व में, फैले दोनों हाथ।।
धन-कुबेर कब पा सका, धन पाकर भी चैन।
तड़प-तड़प जीता रहा, मूँद लिए फिर नैन।।
उसके अपने अंत तक, साथ चले अरमान।
बचपन से सुनता रहा, जो केवल फरमान।।
-अशोक कुमार रक्ताले
मजबूरी अभिशाप बन, ले आती है साथ।
ReplyDeleteनिर्लजता के पार्श्व में, फैले दोनों हाथ।।
... बहुत सुंदर आज के सच की अभिव्यक्ति!!!
मेरी रचना पढ़ने एवं सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 10 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद जी. ई मेल पर लिंक भेज दें. सादर
Deleteबहुत बढ़िया
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