आइना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
आंखों से आंसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमां ये घर में आएं तो चुभता नहीं धुआं
चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआं
ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डांवा-डोल कभी
ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
वगर्ना ज़िंदगी भर को रुला दिया होता
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी
राख को भी कुरेद कर देखो
अभी जलता हो कोई पल शायद
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसां उतारता है कोई
कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्तां हमारी है
कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
ज़िंदगी एक नज़्म लगती है
-गुलज़ार
एक एक शब्द लाजबाव है
ReplyDeleteबेहद सुंदर रचना
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3764 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
वाह !लाजवाब
ReplyDeleteख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
ReplyDeleteउन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी
बहुत खूब।
आइना देख कर तसल्ली हुई
ReplyDeleteहम को इस घर में जानता है कोई
..वाह लाजवाब ! बेहतरीन गजल ।
बेहतरीन धरोहर ।
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