कभी सर्द हवाओं;
तो कभी
गर्म थपेड़ों के बहाने
उसके इर्द-गिर्द
खड़ी कर दी गई
बिना छत की दीवारें ।
वह विभेद करता रहा,
उन दीवारों से कान सटाकर
अट्टहास और चीत्कार में ।
अक्सर रात में
उसे दिखाये गये
चमकदार तारें;
आक्सीजन के नाम पर
उसे दिया गया निरंतर
आश्वासनों का अफीम ।
वह खुद ही में खोया,
कभी खुद ही को ढोया
और फिर
फूट-फूट कर रोया ।
मुझे पता है अब वह
खुद को भरमायेगा;
दीवारों से सर टकरायेगा
और फिर अंततोगत्वा
वहीं मर जायेगा ।
शायद वह जानता ही नहीं
साजिशों से बनी दीवारें
टूटा नहीं करती हैं !!
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (02 -06-2019) को "वाकयात कुछ ऐसे " (चर्चा अंक- 3354) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
शायद वह जानता ही नहीं
ReplyDeleteसाजिशों से बनी दीवारें
टूटा नहीं करती हैं
बेहतरीन रचना ....
बहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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