मासूम खंडहरों में, परछाइयां मिलेंगी
इंसान की गली से, इंसानियत नदारद
मासूम अधखिली से, अमराइयां मिलेंगी
कुछ चूड़ियों की किरचें, कुछ आंसुओं के धब्बे
जालों से कुछ लटकती, रुस्वाइयां मिलेंगी
बाज़ार में हैं मिलते, ताली बजाने वाले
पैसे नहीं जो फैंके, जम्हाइयां मिलेंगी
पहले कहा था अपना, ईमान मत जगाना
इंसानियत के बदले, कठिनाइयां मिलेंगी
बातों के वो धनी हैं, बातों में उनकी तुमको
आकाश से भी ऊंची, ऊंचाइयां मिलेंगी
हर घर के आईने में, बस झूठ ही मिलेगा
कचरे के डस्टबिन में, सच्चाइयां मिलेंगी !!
लेखक परिचय - दिगंबर नासवा
आभार भाई संजय जी
ReplyDeleteसादर...
वाह कचरे के डिब्बे में सच्चाइयां मिलेंगी
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्तुति
वाह!!दिगंबर जी ,बहुत ही भावपूर्ण रचना । हमारे समाज की कडवी सच्चाई को उजागर करती हुई ।
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteक्या कहने नासवा जी का
लाजवाब
वाह बहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteवाह !बहुत ख़ूब 👌👌
ReplyDeleteपूरी ही गज़ल लाज़बाब .क्या कहूँ .हर शे र दिल में उतरता है . मासूम अधखिली से ..में शायद सी है . मासूम अधखिली सी अमराइयाँ ..नासवा जी क्या मैं सही हूँ ?
ReplyDeleteहर घर के आईने में, बस झूठ ही मिलेगा
ReplyDeleteकचरे के डस्टबिन में, सच्चाइयां मिलेंगी
हकीकत.. ,बहुत ही शानदार ,सादर नमन
वाह शब्द शब्द दिल में उतर रहे मान्यवर लाज़बाब रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.6.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3379 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
वाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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