अषाढ़, सावन भादों निकले
रिमझिम बरसे बादल।
अपना नाम लिखाती वर्षा
निकली झलका छागल।
हिनहिनाते घोड़े जैसे, बादल निकल गये।
जाने कब से बैर बाँचते
राजनीति के पिट्ठू।
खोज रहे थे अवसर बैठे
वाज दौड़ के टट्टू।
देख बिगड़ता मौसम घोड़े, तिल से ताड़ हुए।
गत वर्षों के चलते चलते
घटित हुआ कुछ ऐसा।
अर्ध सत्य वे लिखकर गाकर
पाये आदर पैसा।
दाता का जब हुआ इशारा, वे बलिदान किये।
मानवता की परख पखरते
अर्ध सत्य उद्घोषक।
सहिष्णुत को गाली देकर
पक्के बने विदूषक।
जिनसे थी अपेक्षित समता, वे विग्रह दूत हुए।
-लक्ष्मीनारायण गुप्ता
सटीक प्रहार।
ReplyDeleteअनुपम सृजन
वाह!!लाजवाब!!
ReplyDeleteवाह ,बहुत ही सटीक सार्थक और सुन्दर कविता . बहुत कम होता है कि कोई कविता प्रहार करती हो और मधुर भी हो .
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सुंदर और सटीक प्रस्तुति
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