नहीं ज़िंदगी
यूँ नग्न न चली आया करो
कुरूप लगती हो
बेहतर है कि कुछ लिबास पहन लो
कि जब शिशुओं के पास जाओ
तो तंदुरुस्ती का लिबास ओढ़ो..
जब बेटियों के पास जाओ
तो यूँ तो ओढ़ सकती हो गुलाबी पुष्पगुच्छ से सजी चुनरी
या इंद्रधनुषी रंगों से सिली क़ुर्ती
परंतु सुनो
तुम सुरक्षा का लिबास ओढ़ना..
जो गर इत्तफ़ाक़न किसी स्त्री के पास पहुँचो
तो पहन कर जाना प्रेम बुना झालरदार सम्मान ..
जब बेटों के पास जाओ
तो समझ कर लिबास पहनना
मत पहनना उन्माद आक्रोश
पहनना ज़िम्मेदारी वाली उम्मीद ..
पुरुषों के पास संवेदनाओं से भरा पैरहन पहन कर जाना
जिसमें ईमानदारी के बटन लगे हो ..
सुनो ज़िंदगी
किसी आँख में आँसू का आवरण मत बनना
हाथों में मत उतरना गिड़गिड़ाहट बन कर ..
कि सुनो
शिशु की किलकारी
बालकों की खिलखिलाहट
बारिश का पानी
गीतों की सरगम
घर पहुँचने की ठेलमठेल
ये सब ख़ूबसूरत है
इन्हें पहन कर किसी का भी दरवाज़ा खटखटाओ..
फिर सुनो फुसफुसाहट वाली हँसी..
-निधि सक्सेना
वाह ! सुंदर कोमल भावों से युक्त रचना..
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब!!
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteवाह वाह.. बहुत सुन्दर प्रस्तुति 👏👏
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30 -06-2019) को "पीड़ा का अर्थशास्त्र" (चर्चा अंक- 3382) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
बहुत खूब!!
ReplyDeleteजिन्दगी से अपेक्षा.... बहुत ही बढिया कविता
ReplyDeleteसहज प्रवाह लिये सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति, निधी।
ReplyDelete