उकेर लूँ, काग़ज़ पर,
जो तू आए,
ख़्वाबों में ए ख़्याल ।
बस...
क़लम, काग़ज़, स्याही...
और तुम,
मैं बह जाऊँ... भावों में,
अहा!
जो तू आये...
भाव...
रचना की आत्मा से मिल,
बुन आयें, पश्मीनी...
ख़्वाबों का स्वेटर,
ओढ़ता फिरूँ जिसे,
दर्द की सर्द सहर में,
जो दे जाए सर्द में गरमाहट...
दर्द में राहत,
अहा!
क़लम, काग़ज़, स्याही और तुम
जो तू आए,
ख़्वाबों में ए ख़्याल ।
-हरिपाल सिंह रावत
वाह
ReplyDeleteउकेर लूँ, काग़ज़ पर,
ReplyDeleteजो तू आए,
ख़्वाबों में ए ख़्याल ।
बहुत सुन्दर !!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-06-2019) को "सहेगी और कब तक" (चर्चा अंक- 3371) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जो तू आए,
ReplyDeleteख़्वाबों में ए ख़्याल ।
.......बहुत सुन्दर !!