बरसों पहले
बिछुड़ते वक़्त
तुमने जो ख़त
मुझे दिया था
उसमे अब
झुरीयाँ सी
पड़ने लगी हैं,
सियाही फीकी
पड़ने लगी है।
अश्कों में
डूबते-तैरते अल्फ़ाज़
अब बेजान से
लगने लगे हैं ,
अपनी कशिश
खोने लगे हैं ।
ख़त का रंग
पीला पड़ने लगा है
कहीं-कहीं से
छितरने लगा है,
सच कहुँ तो
मुझ जैसा
लगने लगा है।
बंद अलमारी मे रखी
कमीज़ों की तह मे
क़ैद हो कर
बची हुई ज़िन्दगी
जी रहा है ।
मेरी तरह ।
-अनिल खन्ना
वाह
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-06-2019) को "सांस लेते हुए मुर्दे" (चर्चा अंक- 3360) (चर्चा अंक-3290) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबंद अलमारी मे रखी
ReplyDeleteकमीज़ों की तह मे
क़ैद हो कर
बची हुई ज़िन्दगी
जी रहा है ।
मेरी तरह ।
बहुत ही सुंदर
सुन्दर रचना
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