अपनी अँगूठी
कहीं रखकर भूल गयी
भूल जाती है अक्सर
वो इन दिनों
दराज़ की चाबी कहीं
कभी गैस पर कड़ाही चढ़ाकर
कई बार तो
गाड़ी चलाते वक़्त
चौराहे पर रुककर सोचने लगती है
कि उसे जाना कहाँ था
वो भूलती है
बारिश में अलगनी से कपड़े उतारना
चाय में चीनी डालना
और अख़बार पढ़ना भी
आश्चर्य है
इन दिनों वह भूल गयी है
बरसात में भीगना
तितलियों के पीछे भागना
काले मेघों से बतियाना और
पंछियों की मीठी बोली
दुहराना भी
मगर वह नहीं भूली
एक पल भी
वो बातें जो उसने की थी उससे
प्रेम में डूबकर
कभी नहीं भूलती वो
उन बातों का दर्द और दंश
जो उसी से मिला है
फ़रेब से उगा आया है
सीने में कोई नागफनी
वो नहीं भूलती
झूठी बातों का सिलसिला
सच सामने आने पर किया गया
घृणित पलटवार भी
घोर आश्चर्य है
कैसे वह भूल जाती है
हीरे की महँगी अँगूठी कहीं भी रखकर
कई बार तो ख़ुद को भी भुला दिया
मगर नहीं भूलती
मन के घाव किसी भी तरह।
-रश्मि शर्मा
वाह!!रश्मि जी ,बहुत खूब । मन के घावों को भुला पाना सहज नहीं होता ।
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचना
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteकविता की शुरुआत से ' शकुंतला' का अहसास होता है। ओअर बाद में आज की भागती बदहवास ज़िन्दगी का। मन का "घाव" या "मलहम" दोनों ही ताउम्र नहीं भूल पाते हम। अच्छा शब्दचित्र
ReplyDelete👌 👌 बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावप्रधान रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर गहरी रचना हृदय पर अंकित दंश कभी नही भूलते।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (05-06-2019) को "बोलता है जीवन" (चर्चा अंक- 3357) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सभी मौमिन भाइयों को ईदुलफित्र की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भूलनेवाला भी मन है और याद रखनेवाला भी...
ReplyDeleteजख्म जो रह रहकर टीसते हैं वे भूलना चाहे तो भी नहीं भूल पाता।
बहुत धन्यवाद यशोदा जी। बहुत सुखद एहसास हुआ अपनी कविता यहाँ देखकर और लोगों की प्रतिक्रिया पाकर। आभार...
ReplyDeleteलाजवाब सृजन ःः
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