मगर अश्क ख़ामोश फिर भी बहेंगे
मुहब्बत तेरी फ़क्त थी इक दिखावा
बहुत पाक थी तू, सभीसे कहेंगे
नहीं आह लब से उठेगी कभी भी
सितम वास्ते हम तेरे सब सहेंगे
मिला आज अंजाम उल्फ़त का ऐसा
मुहब्बत कभी फिर नहीं कर सकेंगे
रहे तू सलामत नई जिंदगी में
ख़ुदारा ख़लिश अब नहीं हम मिलेंगे.
-महेशचन्द्र गुप्त 'ख़लिश'
अति सुन्दर ।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (25-03-2019) को "सबके मन में भेद" (चर्चा अंक-3284) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'