मौन के इर्द-गिर्द
मन की परिक्रमा
अनुत्तरित प्रश्नों की रेत से
छिल जाते हैंं शब्द
डोलते दर्पण में
अस्पष्ट प्रतिबिंब
पुतलियाँ सिंकोड़ कर भी
मनचाही छवि नहीं उपलब्ध
मौन ध्वनियों से गूँजित
प्रतिध्वनियों से चुनकर
तथ्य और तर्क से परे
जवाब का चेहरा निः शब्द
सवालों के चर-अचर
संख्याओं में उलझा
बिना हल समीकरण
प्रीत का ऐसा ही प्रारब्ध
मौन के अँगूठे से दबकर
छटपटाते मन को स्वीकार
मिला हथेली भर प्रेम
समय की विरलता में जो लब्ध
बहुत सुन्दर श्वेता ! मौन में मन के भावों को संप्रेषित करने की अद्भुत क्षमता है.
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-03-2019) को "अभिनन्दन" (चर्चा अंक-3262) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
डोलते दर्पण में
ReplyDeleteअस्पष्ट प्रतिबिंब
पुतलियाँ सिंकोड़ कर भी
मनचाही छवि नहीं उपलब्ध... बेहतरीन रचना आदरणीया श्वेता जी
सादर
सुंदर रचना।
ReplyDeleteमौन के अँगूठे से दबकर
ReplyDeleteछटपटाते मन को स्वीकार
मिला हथेली भर प्रेम
समय की विरलता में जो लब्ध
बेहद सुंदर... रचना ,बहुत खूब...स्नेह सखी
डोलते दर्पण में
ReplyDeleteअस्पष्ट प्रतिबिंब
पुतलियाँ सिंकोड़ कर भी
मनचाही छवि नहीं उपलब्ध
बहुत लाजवाब.... हमेशा की तरह....
हथेली भर प्रेम....
वाह!!!