नयन बसे घनश्याम,
मैं कैसे देखूँ जग संसार।
पलकें झुकाये सबसे छुपाये,
मैं बैठी घूँघटा डार।
मुख की लाली देखे न कोई,
छाये लाज अपार।
चुनरी सरकी मैं भी उलझी,
लट में उंगली डार।
कंगन चुड़ी गिन-गिन हारी,
बैरी रैन की मार।
जियरा डोले श्याम ही बोले,
हाय विरहा की रार।
सखिया छेड़े जिया जलाये,
ले के नाम तुम्हार।
न बूझै क्यों तू निर्मोही,
देखे न अँसुअन धार।
मन से बाँध गयी नेह की डोरी,
तोसे प्रीत अपार।
मेरे मोह बंध जाओ न,
मैं समझाऊँ प्रेम का सार।
कुछ न चाहूँ हे,मुरलीधर,
कुछ पल साथ अपार।
करने को सर्वस्व समर्पण,
ले द्वार खड़ी उर हार।
-श्वेता सिन्हा
अनुपम बहुत सुंदर भावों से रची बसी सरस श्रृंगार रचना।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteवाह!!श्वेता ,बहुत सुंदर !!
ReplyDeleteलाजवाब सृजन...
ReplyDeleteवाह!!!
वाह ! बहुत खूब
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-03-2019) को "रिश्वत के दूत" (चर्चा अंक-3276) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कुछ न चाहूँ हे,मुरलीधर,
ReplyDeleteकुछ पल साथ अपार।
करने को सर्वस्व समर्पण,
ले द्वार खड़ी उर हार।
बहुत ही सुंदर.... स्वेता जी ,
कंगन चुड़ी गिन-गिन हारी,
ReplyDeleteबैरी रैन की मार।
जियरा डोले श्याम ही बोले,
हाय विरहा की रार।
बहुत ही सुन्दर रचना 👌