प्रेम का छोर नही रे बन्धु !
खुल खुल पुनः
मन प्रेमालिंगन में
बन्ध जाये,
अंतिम प्रेम लिखे कोई कैसे
प्रेम ही जीने की जब
आस दिलाये,
प्रेम है केवल प्रेम, और प्रेम ही है
कोई पहला या अंतिम कह
कर रुक नहीं पाये,
जब जब अवसाद घिरे कातर मन
प्रेम शरण फिर-फिर पाये।
प्रेम बढ़े जब हद से ज़्यादा
बावरी बिरहिनि
एक ही लौ लगाये,
सहस्त्र दल कमल
प्रफुल्लित हो शीश में
पिया दरस से
हर संताप मिट जाये।
डॉ.यासमीन ख़ान
सुन्दर रचना।
ReplyDeleteप्रेम के स्वरूप का बखूबी वर्णन किया है यास्मीन जी ने।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
iwillrocknow.com
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (07-01-2019) को "प्रणय सप्ताह का आरम्भ" (चर्चा अंक-3240) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
पाश्चात्य प्रणय सप्ताह की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'