बस इतना--अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें।
फिर अपनी-अपनी राह हमें।
कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान न पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;
पर इसका दुख क्या? मिल न सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें।
तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे।
तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे।
सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें
अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ न पाईं जीवन को
जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें।
था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।
फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये।
- भगवतीचरण वर्मा
तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
ReplyDeleteमैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे।...बेहतरीन रचना
सादर
सुन्दर
ReplyDeleteवाह अतीव लालित्य लिये सुंदरतम रचना ।
ReplyDeleteभक्त सूरदास ने कान्हा से बिछड़ने पर कहा है -
ReplyDelete'बांह छुड़ाए जात हौ, निबल जानि के मोहि,
हिरदे ते जब जाहुगे, सबल कहोंगी तोय.'
वाह बहुत ही बेहतरीन रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-02-2019) को "नमन नामवर" (चर्चा अंक-3255) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'