घर गिराओ आज माटी का, लगी है होड़
हो चले हम सन्निकट पाषाण के
अब न कीचड़ में कमल दल उग रहा
मोर भी नाचे नहीं दिन बीतते आषाढ़ के
हे विधाता! क्या प्रकृति भी परवशा होगी?
हो गए इतिहास ‘अर्पण’ और ‘न्योछावर’ शब्द
हम नित नयी बुनते कला अनुबंध की
लूटते हैं सुख लुभावन और पछताते जनम भर
हो रही बिकवालियाँ संबंध की
इस जहां की ज़िंदगी अब अनरसा होगी?
पशु-पक्षी पी रहे किस घाट का पानी, न जाने
तज रहे क्यों स्वत्व का उपधान
आदमी अब है लजाता आदमी के बीच
खो रही देवी यहाँ पहचान
छोड़ ममता, दया नारी कर्कशा होगी?
गगनभेदी, तड़ितरोधी, प्रकृति के पर सब विरोधी
गा रहे हम प्रगति अपनी, चाँद-मंगल पर चढ़े
सुख सुई की नोंक भर, मुस्कान टेढ़ी नज़र की
ख़ाक मानवता हुई, अब सोच लो कितना बढ़े
दौड़ अंधी, इस दिशा की क्या दशा होगी?
-राघवेन्द्र पाण्डेय ‘राघव’
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर
अति सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-02-2019) को "करना सही इलाज" (चर्चा अंक-3256) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अनियमित जमा योजनाओं पर प्रतिबंध लगाने का कदम और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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