जब भी चौखट पर आती है
किसी स्त्री की परछाई
लगता है माँ फिर से दस्तक दे रही है जीवन में
उसके देह की महक
चूड़ियों की खनखनाहट
किसी के होने भर से
उसका मुस्कुराहट भरा वो चेहरा
अचानक घुमने लगता है
मेरे चारों ओर
लेकिन वह नहीं आती
वह सब परछाइयाँ
धीरे-धीरे किसी अपरिचित की होने लगती है
माँ गयी तो
जीवन के रंगमंच पर भी कभी नहीं आयी
मुझको और उदास करने के लिये
आती है तो केवल सपने में
यदि फिर किसी दिन आयेगी सपने में ही
तो उसे बिठा लूँगा बिल्कुल पास
और पूछूँगा-'कहाँ गयी थी इतने दिनों तक?'
मैं जानता हूँ
वह कुछ नहीं बोलेगी
बस अपने पास बुलाकर बालों में हाथ फेर देगी
उसके बाद
मैं कुछ कह नहीं पाऊँगा।।
-शशांक पांडेय
अप्रतिम अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteमाँ और माँ की यादें ...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर... भावपूर्ण रचना...