शाख़ से टूटने के पहले
एक पत्ता मचल रहा है।
उड़ता हुआ थका वक्त,
आज फिर से बदल रहा है।
गुजरते सर्द लम्हों की
ख़ामोश शिकायत पर
दिन ने कुछ धूप जमा की है,
साँझ की नम आँगन में
चाँदनी की शामियाने तले
दर्द के शरारों का दखल रहा है।
सहेजकर रखे याद के खज़ानें में
एक-एक कीमती नगीना
गुलाबी रुमाल में बाँधकर
पिटारे में जो रक्खी थी,
उन महकते ख़तों से निकलकर
ख़्यालों में कोई मचल रहा है।
बड़ी देर से थामकर रखी है
कच्ची सी डोर उम्मीद की
कुछ खोने-पाने के डर से परे
अभिमंत्रित पूजा की ऋचाओं सी,
हृदय के महीन तारों से लिपटा
प्रेम ही प्रेम पवित्र सकल रहा है।
-श्वेता सिन्हा
सहेजकर रखे याद के खज़ानें में
ReplyDeleteएक-एक कीमती नगीना
गुलाबी रुमाल में बाँधकर
पिटारे में जो रक्खी थी,
उन महकते ख़तों से निकलकर
ख़्यालों में कोई मचल रहा है।
....बहुत खूब.......लाजवाब
सुंदर प्रस्तुति ....👌
ReplyDeleteहृदय के महीन तारों से लिपटा
ReplyDeleteप्रेम ही प्रेम पवित्र सकल रहा है।
बेहतरीन रचना.... ,बहुत खूब... स्वेता जी ,सादर स्नेह
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (03-02-2019) को "चिराग़ों को जलाए रखना" (चर्चा अंक-3236) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कुछ खोने-पाने के डर से परे
ReplyDeleteअभिमंत्रित पूजा की ऋचाओं सी,
हृदय के महीन तारों से लिपटा
प्रेम ही प्रेम पवित्र सकल रहा है!!!!!!
!बहुत ही सुंदर भाव प्रिय श्वेता | खोने पाने से परे होने में ही प्रेम की सार्थकता है | बहुत शुभकामनायें और मेरा प्यार |