नक़्श आँगन के अजनबी,कहें सदायें, सुन
हब्स रेज़ा-रेज़ा पसरा,सीली हैं हवायें,सुन
धड़कन-फड़कन,आहट,आहें दीद-ए-नमनाक
दिल के अफ़साने में, मिलती हैं यही सज़ाएं सुन
सुन मुझ पे न मरक़ूज कर नज़रें अपनी
ख़ाली हैं एहसास दिल की साएं-साएं,सुन
ना छेड़ पत्थरों में कैद लाल मक़बरे को
फिर जाग उठेंगीं, सोयी हुईं बलायें,सुन
मैं अपनी पलकों से चुन लूँ सारे ग़म तेरे
तू जीस्त-ए-सफ़र में, मेरी पाक दुआएँ,सुन
-श्वेता सिन्हा
नक़्श..चिह्न, हब्स ..घुटन
रेज़ा-रेज़ा..कण-कण, दीद-ए-नमनाक..गीले नेत्र
मरक़ूज-केंद्रित, जीस्त-ज़िंदगी
ReplyDeleteमैं अपनी पलकों से चुन लूँ सारे ग़म तेरे
तू जीस्त-ए-सफ़र में, मेरी पाक दुआएँ,सुन!!!!!!!!!!!
रूहानी प्यार को समर्पित सुंदर रचना प्रिय श्वेता | शब्दों की कलात्मकता देखते ही बनती है | बहुत - बहुत शुभकामनायें और मेरा प्यार |
सुन्दर रचना।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज मंगलवार (05-02-2019) को "अढ़सठ बसन्त" (चर्चा अंक-3238)
ReplyDeleteपर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन अल्फाज़..... रूहानी से ख्वाबों
ReplyDeleteक्या बात क्या बात श्वेता जी क्या बात