सांस गई पहचान गई है
अब कोई पहचान नहीं
टैग लगाकर मुझे लिटाया
जब से मुझ में जान नहीं
बड़ा ऐंठता फिरता था मैं
भरकर सदा जुनून से
अब तो मेरा तन भी
खाली है मेरे ही खून से
साथ सभी थे जीवन भर जो
वो भी अब ना साथ हैं
अब ना कुछ भी पास में मेरे
खाली दोनों हाथ हैं
रंग बिरंगे कपड़े पहने
सदा रहा मैं क्यूँ इतराता
आखिर मैंने पाया कफन
जो सबको पहनाया जाता
बड़ी कमाई दौलत जो थी
वो भी अब ना पास है
दो गज मिले जमीं अब तो
या कुछ लकड़ी की आस है
-कल्पना सक्सेना
मृत्यु के सत्य का बेबाक अभिव्यक्ति सूंदर रचना कल्पना जी शुभकामनाये
ReplyDeleteसत्य है।
ReplyDeleteवाह !!!लाजवाब !!!
ReplyDeleteहकीकत पता है तब भी मगरूर हूँ मैं
ReplyDeleteउम्दा रचना
जीवन का यह सत्य हम सभी जानते है लेकिन ताउम्र इसे झुठलाने में लगे रहते है|
ReplyDeleteसुन्दर रचना|
अनत यात्रा पर चलने वाला इंसान जरुर यही सोचता होगा बहुत ही सार्थक रचना आदरणीय कल्पना जी |
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.05.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2966 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत ही सुंदर रचना कल्पना जी।
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