रेगिस्तान में जेठ की दोपहर
किसी अमावस की रात से भी अधिक
भयावह, सुनसान और सम्मोहक होती है
आंतकवादी सूरज के समक्ष मौन है
आदमी, पेड़, चिड़िया, पशु
कोई प्रतिकार नहीं बस
ढूंढते हैं मुट्ठीभर छांह
आवाज के नाम पर
जीभ निकाले लगातार
हांफ रहे कुत्तों की आवाजें सुनाई देती हैं
सन्नाटा गूंजता है चारों ओर
गलती से बाहर निकले आदमी को
लू थप्पड़ मारकर बरज देती है
प्याज और राबड़ी खाकर भी
झेल नहीं पाता आदमी
छलकते पूर्ण यौवन के अल्हड़ उन्माद में स्वछंद दुपहरी
किसी भी राह चलते से खिलवाड़ करती है
धूप सूरज और लू की त्रिवेणी
करवाती है अग्नि स्नान
रेत और उसके जायों को
इस नग्न आंतक से त्रस्त
छांह भी मांगती है पनाह।
-अश्वनी शर्मा
वाह
ReplyDeleteछांह भी माँगती है पनाह ...बेहतरीन शब्दों और भावों का संमिश्रण अश्वनी जी ...
आतंकवादी सा सूरज ....लाजवाब उपमा ...
बहुत खूब ..🙏
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-05-2017) को "आम और लीची का उदगम" (चर्चा अंक-2978) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteसूर्य के आंतक का बहुत सुंदर वर्णन भावो का शब्दों के साथ सफल संयोजन।
वाह रचना ।
वाआआह अनुपम सृजन
ReplyDeleteधूप सूरज और लू की त्रिवेणी....
ReplyDeleteछाँव भी माँगती है पनाह...
वाह !!!!!
लाजवाब अभिव्यक्ति
वाह वाह
ReplyDeleteखूबसूरत रचना
बहुत खूब आदरणीय !!!!!! छांह भी मांगती हैं छांह !!!!! जेठ की दुपहर से तप झुलसकर आक्रांत जो हो चुकी होती है | जेठ के दिन का अनोखा सटीक वर्णन | हार्दिक शुभकामना |सादर --
ReplyDeleteग्रीष्म ऋतु में औरों को छाँह देते, खुद धूप में झुलसते पेड़ों को देखकर यही लगता है.... कभी तो वे भी छाँह को तरसते होंगे। सुंदर रचना।
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