हाँ,मैंने भी देखा है
चारकोल की सड़कें
फैल रही ही है
सुरम्य पेड़ों से आच्छादित
सर्पीली घाटियों में,
सभ्य हो रहे है हम
निर्वस्त्र,बेफ्रिक्र पठारों के
छातियों को फोड़कर समतल करते,
गाँवों की सँकरी
पगडंडियों को चौड़ा करने पर,
ट्रकों में भरकर
शहर उतरेगा ,
ढोकर ले जायेगा वापसी में
गाँव का मलबा,
हाँ ,मैंने महसूस किया है
परिवर्तन की
आने की ख़बर से
डरे-डरे और उदास
खिलखिलाते पेड़
रात-रात भर रोते पठार और
बिलखते खेतों को,
जाने कौन सी सुबह
उनके क्षत-विक्षत अवशेष
बिखर कर मिल जायेे माटी में
हाँ,मैंने सुना है उन्हें कहते हुये
सभ्यता के विकास के लिए
उनकी मौन कुर्बानियाँ
मानव स्मृतियों में अंकित न रहे
पर प्रकृति कभी नहीं भूलेगी
उसका असमय काल कलवित होना
शहरीकरण के लिबास पहनती सड़कों पर
जब भर जायेगा
विकास को बनाने के बाद बचा हुआ
ज़हरीला धुआँ
तब याद में मेरी
कंकरीट खेत के मेड़ों पर
लगाये जायेगे वन
"पेड़ लगाओ,जीवन बचाओ"
के नारे के साथ।
-श्वेता सिन्हा
आभार सखी
ReplyDeleteसादर
सार्थक चित्र उकेरती भविष्य का।
ReplyDeleteसारगर्भित तथ्य सुंदर काव्य।
मनुष्य विध्वंस करके ही सिख पायेगा
ReplyDeleteकि पेड़ तो जरूरी है जीवन के लिए
लेकिन तब तक देर हो जाएगी।
जहर में भी भला कोई वन पनपेगा कैसे?
अद्भुत रचना है।
सुन्दर रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (18-05-2018) को "रिश्ते ना बदनाम करें" (चर्चा अंक-2964) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुरम्य पेड़ों से आच्छादित
ReplyDeleteसर्पीली घाटियों में,
सभ्य हो रहे है हम
निर्वस्त्र,बेफ्रिक्र पठारों के
छातियों को फोड़कर समतल करते,
गाँवों की सँकरी
पगडंडियों को चौड़ा करने पर,
बहुत सुन्दर...
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना श्वेता जी!
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteअब नारे ज्यादा लगाए जाते हैं, जो चिंता का विषय है ,
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति