पूछो न बिना तुम्हारे कैसे सुबह से शाम हुई
पी-पीकर जाम यादों के ज़िंदगी नीलाम हुई
दर्द से लबरेज़ हुआ ज़र्रा-ज़र्रा दिल का
लड़खड़ाती हर साँस ख़ुमारी में बदनाम हुई
इंतज़ार, इज़हार, गुलाब, ख़्वाब, वफ़ा, नशा
तमाम कोशिशें सबको पाने की सरेआम हुई
क्या कहूँ वो दस्तूर-ए-वादा निभा न सके
वफ़ा के नाम पर रस्म-ए-मोहब्बत आम हुई
ना चाहा पर दिल ने तेरा दामन थाम लिया
तुझे भुला न सकी हर कोशिश नाकाम हुई
बुत-परस्ती की तोहमत ने बहुत दर्द दे दिया
जफ़ा-ए-उल्फ़त मेरी इबादत का इनाम हुई
बुत-परस्ती की तोहमत ने बहुत दर्द दे दिया
ReplyDeleteजफ़ा-ए-उल्फ़त मेरी इबादत का इनाम हुई...........वाह!!! हर मिसरा लाज़बाब और बेहतरीन! मुबारक!!!
वाह श्वेता कमाल बेमिसाल!!
ReplyDeleteहमारी तो मजाल ही क्या कि चुप बैठें (आपकी शायरी पे)
इसे पढ़ कर तो कोरे कागज भी बोल बैठे।
Waah 👌👌👌 waah
ReplyDeleteबेहतरीन स्वेता जी एक से बढ़कर एक मिसरे हैं... शुभकामनाये
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-05-2017) को "देश निर्माण और हमारी जिम्मेदारी" (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुंदर।।
ReplyDeleteवाह लाजवाब सुंदर रचना
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