किनारे पर खड़ा क्या सोचता है
समुंदर दूर तक फैला हुआ है
ज़मीं पैरों से निकली जा रही है
सितारों की तरफ़ क्या देखता है
चलो अब ढूँढ लें हम कारवाँ इक
बड़ी मुश्किल से ये रस्ता मिला है
हमें तो खींच लाई है मुहब्बत
तुम्हारा शहर तो देखा हुआ है
नये कपड़े पहन के जा रहे हो
वहाँ कीचड़ उछाला जा रहा है
वहाँ तो बारिशें ही बारिशें हैं
यहाँ कोई बदन जलता रहा है
कभी उस को भी थी मुझ से मुहब्बत
ये क़िस्सा अब पुराना हो चुका है
बुरे दिन हैं सभी मुँह मोड़ लेंगे
“ज़माने में यही होता रहा है”
- अखिल भण्डारी
बहुत बहुत सुंदर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-06-2018) को "साला-साली शब्द" (चर्चा अंक-2988) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह लाजवाब सुंदर
ReplyDeleteAkhiri sher sab se sundar hai!
ReplyDeleteबुरे दिन हैं सभी मुँह मोड़ लेंगे
ReplyDelete“ज़माने में यही होता रहा है”
.........परम सत्य!!!